Thursday, 29 December 2016

विवेक का महत्व


कई बार मन और मस्तिष्क में जंग छिड़ जाती है,मन की बात सुनने का अर्थ होता है दुनियादारी को त्याग वो करना जो हम हमेशा से करना चाहते हैं किंतु हमारा मस्तिष्क हमें सचेत करता है कि मन की सुनने में क्या क्या हानि हो सकती है।हमारा मस्तिष्क तर्क प्रधान होता है जो समय के संग संग अनुभवों से सीखता है और उन अनुभवों के आधार पर ही हमें तर्क द्वारा किसी कार्य को करने का क्या परिणाम हो सकता है ये समझाता है। वहीँ मन उड़ान भरना चाहता है नित नई उमंगों से सराबोर होना चाहता है वो निर्धारित राहों से हट कर कुछ अलग रोमांचक करने के लिए तत्पर रहता है।इसी से मनमस्तिष्क में शुरू हो जाती है कशमकश।व्यक्ति दुविधा में रहता है क्या करूँ क्या नहीं ।मन अपनी बात मनवाना चाहता है मस्तिष्क अपनी। मन तो बावरा होता है पता नहीं क्या क्या चाहता है मस्तिष्क उसकी लगाम खींच कर उसे नियंत्रित करता है। किंतु हमेशा मस्तिष्क का कहा मानते मानते जीवन में नीरसता आ जाती है इस एकरसता की नीरसता को भंग करने के लिए व्यक्ति कभी कभी मन की करना चाहता है पर परिणाम के विषय में सोचकर संशय में पड़ जाता है।इस संशय को किस भांति सुलझाया जाये ये अहम प्रश्न है।यहाँ विवेक काम आता है ...स्वविवेक से निर्णय लेकर अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुनते हुए जो निर्णय लिया जाता है वो कभी गलत नहीं होता।
  विवेक का प्रयोग करना भी एक कला है और ये कला विकसित होती है स्वाध्याय और ध्यान से।जब आप ध्यान लगाते हैं तो स्वयं के भीतर झांक पाते हैं व अपनी अंतरआत्मा की पुकार सुनने की कला विकसित कर पाते हैं।जब कोई अपने विवेक का प्रयोग करना सीख जाता है तो उसकी सभी उलझनें सुलझ जाती हैं व वो मन मस्तिष्क की कशमकश से मुक्ति पा जाता है।अतः विवेक का प्रयोग करना सीखें और संतुलित जीवन बिताने के पथ पर अग्रसर हो जायें।
  प्रतिदिन थोड़ा सा समय स्वयं को देकर योग और ध्यान की आदत उत्पन्न करके अपने विवेक को जाग्रत करें एवं जीवन को सुगम और कल्याणकारी बनायें।

नव वर्ष मंगलमय हो

(नव वर्ष)
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
अक्सर ये प्रश्न मन में कुलबुलाते हैं
मनाते हैं तो इतना उल्लास कहाँ से लाते हैं
बिना कारण ही उमंग में डूब जाते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
जैसा सर्द मौसम दिसंबर का बिताते हैं
वही सर्द हवायें ,कंपकपी जनवरी में पाते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
हमारे बड़े बुजुर्ग हमें ये बात समझाते हैं
हर त्योहार मनाने का कारण बताते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
नवसंवत्,नई फ़सल व ऋतु की सौगात लाते हैं
गर्म जलवायु के आदि हम प्रसन्नता जताते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं
बरसात में कीड़े मकोड़ो के प्रकोप बढ़ जाते हैं
संयम रखो खानपान में सावन के उपवास सिखाते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
करवे के जल वातावरण में ठंडक बढ़ाते हैं
चंद्र को नमन कर शीतलता का महत्व बताते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
दीपावली पर तो त्योहारों के अम्बार लगाते हैं
नये धान के आगमन पर खील खिलौनों के भंडार सजाते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
मकर संक्रान्ति पर तिल,गुड़ व मूंगफली बरसाते हैं
दान पुन कर सबको खुशियों में शामिल कर जाते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
मनभावन होली में चहुँ ओर रंग बरसाते हैं
गन्ना, चना भून होली के जश्न में डूब जाते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
नववर्ष पर दिन,मास व साल का ही बदलाव पाते हैं
बस घर की दीवारों पर नया कैलेंडर लगाते हैं
आखिर हम ये नववर्ष क्यूँ मनाते हैं?
हम भारतीय हर ख़ुशी में सम्मिलित हो जाते हैं
सम्भवतः इसीलिये ये नववर्ष मनाते हैं
चलो हम भी आज ये परिपाटी निभाते हैं
हर्षोल्लास से नववर्ष की धूम धाम मचाते हैं
आओ मिल कर हम सब भी नववर्ष मनाते हैं।
"नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं"
"सन् 2017 मंगलमय हो"
               "मीनाक्षी मेहंदी"

Wednesday, 28 December 2016

पतंग

"पतंग"
बचपन में पतंग उड़ाने का था तुम्हें शौक विशेष
कहीँ दबे हैं अब भी तुम्हारे मन मेँ वो अवशेष

अनायस नियति ने एक दिन मुझे बना दिया पतंग
कट कर गिरी धरा पर और उठा ले गए तुम संग

बनाया था कभी किसी ने मुझे बड़े लाड़ चाव से
मांग कर ले गया था कोई ख़ुशी व लगाव से

पर वो अनाड़ी अनुभवहीन मुझे  संभाल न पाया
कटी मेरी डोर तुम्हारे हाथ मेँ स्वयं को पाया

तुम्हारे दक्ष हाथों ने बांध दी मुझमें नयी डोर
कुलांचे भरती मैं उड़ गयी आकाश की ओर

पहली बार देख कर ऊँचाइयां हुई मैं मुदित
नूतन परिवेश पाकर मुख पर आयी स्मित

जी भर कर उड़ाया मुझे जब जब हुए तुम बोर
मैं भी साथ देती तुम्हारा संध्या हो या भोर

ढीली होती जब भी डोर काँपता मेरा अंतर
कटने,उलझने का नहीं साथ छूटने का लगता डर

तुम्हारा सामीप्य ना मिले  होगा ना ये गवारा
लगता अभी गिरी तभी संभाल लेते खींच कर दुबारा

कभी ख़ुशी कभी गम देती ये तुम्हारी खीचंतानी
कुछ पल की प्रसन्नता हेतु सहती हर मनमानी

तदुपरान्त मुझे उड़ाने के बढ़ने लगे समयान्तराल
प्रतीक्षारत रहती मैं कैसा डाला ये मोहजाल

मुझे कोने में रख कई कई दिवस भूल जाते हो
विकल्प न होता कोई तब मुझसे मन बहलाते हो

तुम्हारा वियोग मुझको देता है सदैव अपार पीड़ा
पर बिसार देती हूं सब करते हो जब संग क्रीड़ा

कामना करती हूं कभी तो मिलेगा प्रेम सतत
इसी झूठी आस में काटती ये जीवन अभिशप्त

कटने और छूटने के भय से हर पल रहती हूं तंग
पर बनी रहना चाहती हूं यूं ही सदा तुम्हारी पतंग

                   मीनाक्षी मेहंदी

Tuesday, 27 December 2016

दुविधा

पता नहीं अगला या पिछला जन्म होता है या नहीं पर जब कोई हमें पहली नज़र में ही भाने लगता है तो सोचते हैं कि पिछले जन्म का नाता है और हमारी दुविधा मिट जाती है, जब कोई ऐसा अच्छा लगे जिसे पा नहीं सकते तो अगले जन्म में मिलेंगें ये सोच मन को बहलाते हैं....

ऐसा भी होता है

ख्वाब में चाहा तुमको
अपने को खुशनसीब पाया
हकीकत में पा लिया जब
तेरा साया भी ना भाया
                     Mm

Sunday, 25 December 2016

Merry Christmas to all



पूर्व प्रधानमन्त्री माननिय अटल बिहारी जी (युगपुरूष) भारत रत्न के जन्मदिन की शुभकामनाये

🌷Happy Birth Day🌷

आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाए
     - भारतरत्न अटल बिहारी बाजपेयी 


 एक बार भगवान शिव ने अपने तेज को समुद्र में फेंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यह बालक आगे चलकर जलंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था।
दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जलंधर से हुआ। जलंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।

भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतध्यान हो गईं।
देवी पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जलंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जलंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था।
इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जलंधर के बारे में पूछा।
ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जलंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्चिछत हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें।
भगवान ने अपनी माया से पुन: जलंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जलंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जलंधर युद्ध में हार गया।
इस सारी लीला का जब वृंदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को शिला (Stone) होने का श्राप दे दिया तथा स्वयं सति हो गईं। जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उगा। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा, ‘हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा।’
कहा जाता है की, जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है। चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

Saturday, 24 December 2016

नाम का प्रभाव.....सोच अपनी अपनी...


शेक्सपियर की उपरोक्त पंक्तियाँ बहुत चर्चित हैं किंतु भारतीय चिंतन कुछ अलग ही धारणा प्रस्तुत करता है - कहा  जाता है - यथा नाम तथा गुण।
तभी जीवन के महत्वपूर्ण संस्कारों में नामकरण संस्कार एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।हमारे समाज में बालक का नाम अधिकतर महापुरुषों और भगवान के नाम पर रखने का रिवाज इसीलिये है कि हमारी मान्यता है व्यक्ति पर नाम का प्रभाव पड़ता है। यद्धपि आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति का जो नाम हो उसके ऊपर  उसका वही प्रभाव पड़े,कई भगवान के नाम वाले लोग अपराधी प्रवृति के पाये जाते हैं।भिखारी नाम के लोग सेठ भी है तथा करोड़ीमल नामक निर्धन भी होते हैं।काका हाथरसी की प्रसिद्ध कविता भी है" नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और
शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने
कहँ ‘ काका ' कवि , दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर'
आजकल एक सेलिब्रिटी कपल के द्वारा अपने बच्चे के नामकरण पर चर्चाएं सुर्ख़ियों में हैं।कोई अपने बच्चे का नाम कुछ भी रखे पर मशहूर लोगों की जिंदगी से आम व्यक्ति स्वयं को जुड़ा पाता है अतः उनके निजी निर्णयों पर टीका टिप्पणी करता है।अपने बच्चे का नाम रखने हेतु स्वतन्त्रता है किंतु नाम ऐसा होना चाहिए जिसे सुनते ही अच्छी छवि आँखों के समक्ष उपस्थित हो।सम्भवतः इसी कारण हमारे देश में रावण,कैकयी,मन्थरा,कंस, सुर्योधन व सुशासन इत्यादि नाम नहीं रखे जाते हैं।और तो और प्राण साहब ने चलचित्र में खलनायक के जो विभिन्न रूप साकार किये उनका जनमानस पर कुछ ऐसा रूप अंकित हुआ कि कई दशक से प्राण नाम किसी ने नहीं रखा जबकि बाद में प्राण साहब ने चरित्र अभिनेता के रूप में भी कई फिल्में कीं।
    मैंने भी अपनी रिश्तेदारी में कई बच्चों के नाम रखे हैं ,किसी नवजात को देखते ही मन में जो भाव सर्वप्रथम उत्पन्न होता है वही मेरे द्वारा किये नामकरण का आधार बन जाता है और सुखद लगता है जब परिजन मेरा सुझाया नाम ख़ुशी ख़ुशी अपना लेते हैं, कई बार उलझन होने पर हमने साबुन घी आदि के नाम सोचते हुए रिया,गगन,रुची नाम रखे तो कभी गणित की किताब में डुबकी लगा कर परिधी,व्यास आदि नाम खोज लिये।किसी से स्नेह जागा तो स्नेहा व अतिरेक ख़ुशी होने पर हर्षी।एक भाई का नाम शक्ति रखा तो भतीजे का आराध्य।मेरा नाम भी शुरू में कुछ और रखा गया था किंतु जब मेरे पिता को ज्ञात हुआ कि ये विदेशी नाम है तो उन्होंने बदल कर स्वदेशी नाम रख दिया।आज भी अपने नाम के संग पिता की भावनाएं स्वयं से जुड़ी पाती हूँ।
 नाम कुछ भी हो किसी भी भावना से रखा जाये किन्तु इतना तो ध्यान रखना ही चाहिये कि जनमानस को क्षति पहुँचाने वाली छवि साकार ना हो तथा नाम सुनते ही मन में सकारात्मक भाव उत्पन्न हों।यही कारण है कि प्रभु भक्त होने पर भी विभीषण नाम कभी सुनने में नहीं आता।बाकि जिसकी जैसी इच्छा आख़िरकार हम लोकतान्त्रिक देश के वासी हैं........

Thursday, 22 December 2016

भ्रूणहत्या (एक माँ की सोच)

भ्रूणहत्या (एक माँ की सोच)
बिटिया तुम्हें इस संसार में नहीं ला पाऊँगी
आशंकित तुम्हारे भविष्य से मैं हत्यारिन बन जाऊँगी
जब कोई नशे में धुत्त,चलाएगा 'इंकार'पर गोली
तनिक ना हिचकिचायेगा, खेलने में खूनी होली
तुम्हारी लाश के संग संग मैं भी मर जाऊँगी
तुम्हें मृतक देखने का साहस नहीं ला पाऊँगी
आशंकित तुम्हारे भविष्य से मैं हत्यारिन बन जाऊँगी
जब कोई भूल कर इंसानियत,
बनेगा हवस का मारा
बाँध गर्दन पलंग से,
मानमर्दन करेगा तुम्हारा
तुम्हारी बेहोशी के संग संग,
मैं भी बेसुध हो जाऊँगी
तुम्हें दीर्घकाल तक कोमा में नहीं देख पाऊँगी
आशंकित तुम्हारे भविष्य से मैं हत्यारिन बन जाऊँगी
जब कई नरपिशाच घेरेंगें,
कर चलती बस में सवार
निर्ममता बर्बरता की,
करेंगें सारी हदें पार
तुम्हारे घावों के संग संग,
मैं भी मरणासन्न हो जाऊँगी
तुम्हारा पर्चियाँ लिख बताया,
दर्द व अत्याचार नहीं पढ़ पाऊँगी
आशंकित तुम्हारे भविष्य से मैं हत्यारिन बन जाऊँगी
जब कोख़ में मचा हलचल,
अपने होने का अहसास कराती हो
तब रणचंडियों की गाथा भी, स्मरण मुझे कराती हो
तुम्हें मिटाया तो संग संग,
मैं भी तो मिट जाऊँगी
अपने अंश को पालूँगी,
इस धरा पर लाऊँगी
आशंकित तुम्हारे भविष्य से पर हत्यारिन ना बन पाऊँगी
सफ़ल व साहसी नारियों की,
कथा तुम्हें सुनाऊँगी
दृढ़,निर्भीक व सशक्त,
मैं तुमको बनाऊँगी
बिटिया तुम्हें इस संसार में,
मैं अवश्य लाऊँगी
आश्वस्त रहो प्यारी बिटिया,
भ्रूण हत्या को ना जाऊँगी
सौगन्ध खाती हूँ प्यारी बिटिया,
भ्रूण हत्या को ना जाऊँगी।
           मीनाक्षी मेहंदी

कशमकश


अंदर बाहर सम जीवन,जैसे मानव कोई यंत्र
बिना कैद किये बन जाता है व्यक्तित्व परतंत्र
जानो मनमस्तिष्क हैं बिषम मिलेगा आनंदमंत्र
आधा रहे संसारी कम से कम आधा रहे स्वतंत्र
                        Mm

टिप्पणी: यदि दिल और दिमाग में तारतम्य ना बन पा रहा हो तो कशमकश में जीने से बेहतर है कि दो हिस्सों में जी लो कभी दिमाग की सुनो कभी दिल की और जी लो जिंदगी......विश्वास कीजिये अलग ही सुख व राहत मिलेगी।

Tuesday, 20 December 2016

वादा

प्यार तुमसे है तो निभाएंगे भी उसे
कभी जुदा न समझना अपने से मुझे।
               
                      मीनाक्षी मेहंदी

my lovely city, my Rampur

आपकी इनायत जो आपने हमें अपना समझा
वरना हम तो अपनों के शहर में बेगाने थे

Monday, 19 December 2016

एकतरफ़ा पत्र

एकतरफ़ा पत्र

एकतरफ़ा पत्र भी एक पूरा दस्तावेज होते हैं।
ऐसे ही पत्रों का पुलंदा मिल गया यकायक,वो पत्र जो लिखे हैं एक पति ने अपनी परिणीता को।उनके नवविवाहित जीवन से शुरू होते हुए उन पत्रों का उनके जीवन की बगिया में खिलने वाले फूलों के संग संग  अंदाजे बयान भी बदलता जाता है।एक नवयुवक ,एक आतुर प्रेमी से जिम्मेदार पिता और सुयोग्य पति बनने की यात्रा का दस्तेवाज हैं वो पत्र।
सोच बदलती है,प्राथमिकताएं बदलती हैं किंतु पत्रों में एक भाव नहीं बदलता वो है रुमानियत। कुदरत की इच्छा कहो या नियति का विधान उन दोनों का साथ अधिक नहीं रहा,पत्र लेखक विलीन हो गया इस दुनिया से दूर पता नहीं कौन से जहान में।
 पीछे छूट गयी साथी ने सजाया संवारा सब बिखरे तिनकों को और सहेज कर रखा घोंसले को ।सारी जिम्मेदारियां अल्प आयु में निभाते निभाते जाने कितनी बार घबराई होगी वो कितनी बार त्रसित हुई होगी ,तब शायद यही पत्र बार बार उसका सम्बल बने होंगे,जब भी एकाकीपन महसूस हुआ होगा इन पत्रों में  ही अनुभव कर लिया होगा अपने साथी को और पुनः पुनः जीवनी शक्ति प्राप्त की होगी।
कभी कहीं पढ़ा था कि अतीत अच्छा हो या बुरा हो उसे भूल जाना ही श्रेयस्कर है क्योंकि अतीत यदि बुरा हो तो उसे याद कर कर हम दुखी होते रहते हैं और यदि सुखद हो तो भी दुखी होते हैं कि हमारे हालात पहले से कितना बदल गए हैं।अतीत को भूला तो नहीं जा सकता किन्तु उससे चिपक कर रहना भी उचित नहीं है,अतीत से सबक जरूर ले सकते हैं, इतिहास पढ़ाये जाने का औचित्य भी यही है कि अतीत में हुई गलतियों से सबक लो और जो अच्छा किया है उसे सँजो कर गर्व महसूस करो।इन पत्रों को पढ़ते हुए मैं भावविभोर हो उठती हूँ , ये पत्र जो किसी के जीवन की संजीवनी बूटी रहे होंगे उन्हें पढ़ते हुये मैं सोच रही हूँ इन्हें जला दूँ ,गंगा में बहा दूँ या सँजोये रखूं किसी विरासत की तरह। 

                टिप्पणी: एक पत्र लिखा जाता होगा फिर उसके पहुँचने के बाद उसका जवाब आने की प्रतीक्षा होती थी,कितने दिन तो यूँ ही व्यतीत हो जाते होंगें ।कितनी खुशनसीब है हमारी पीढ़ी जो इस युग में है जहाँ पलक झपकते ही सन्देश पहुँच जाते हैं साथ ही फ़ोन पर त्वरित वार्तालाप भी हो जाता है,हमारी पीढ़ी इस मायने में विलक्षण है कि हमने पत्रों का रसास्वादन भी किया है तथा आधुनिक संचार साधनों का भी उपयोग कर रही है।                      

Friday, 16 December 2016

(निर्भया- तुम्हारी याद में)



(निर्भया- तुम्हारी याद में)

लोग कहते हैं नहीं बदला तुम्हारे जाने से कुछ
वो आक्रोश वो पीड़ा ठहर गया है सब कुछ
कितनी जिंदगियाँ अब भी हो रहीं हैं बेमानी
तुमको याद करते हैं जैसे कोई  बिसरी कहानी
वक़्त के साथ हर जख़्म भर नहीं पाते हैं
तुम्हारे साथ बीते मंजर अब भी दहलाते हैं
तकती रहती हूँ मैं बार बार सड़क का मोड़
चैन आता जब दिखती बेटी आती घर की ओर
बिटिया के ज़माने संग बढ़ते कदम ना रोक पाऊँगी 
पर अपने उद्देलित मन को भी ना समझा पाऊँगी
आशंका व डर पावँ पसार चुके हैं मेरे भीतर
दिखता नहीं ये बदलाव आया हर माँ के अंदर
आज सुना पा रहा है वो किशोर रिहाई
निर्भया तुम्हारी याद में पुनः आँख भर आई
क्या वास्तव में वो सुधरा हुआ जीवन बिताएगा
अपने कुकृत्य का लेशमात्र भी प्रायश्चित कर पायेगा
जिसने किया था कुछ काल पूर्व मानवता को निर्वस्त्र
अपेक्षा करते पहनायेगा वो अब सिलकर वस्त्र
भयंकर अपराधी से करते सुधरने की आशा
सहिष्णु देश की इससे बेहतर क्या होगी परिभाषा।
                मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी :  आज चार साल हो गये ,क्या बीते समय में समाज की सोच में कोई बदलाव आया है,क्या ऐसे हादसे होने बंद हो गये हैं? 

Thursday, 15 December 2016

खामोशियाँ


 
           खामोशियाँ

सोचती थी अक्सर,

मिलोगे तो ये पूछूँगी वो जानूँगी

तुम एक बार मिलो तो सही,

सब बयाँ करवा लूँगी

मिले तुम एक बार ही नहीं,

कई कई बार निरंतर

पर कह नहीं पाई,

जो घुमड़ता मन के अंदर

तुम्हें देख तीव्र हो जाती,

धक धक करती धड़कन

निगाहें झुक जाती,

थरथराते होंठ करते कम्पन

जानना चाहती क्या है राज,

पहली बार बजा तुम्हे देख दिल का साज़

सच है मुख बंद होने पर,

आँखे बात करती हैं

सही है भाव भंगिमा भी,

वार्तालाप करती है

मुझे नहीं दिख रहा था ,

ये सब कुछ

पर जो जानना चाहा,

जान लिया सब कुछ

अनायास तुम चुप्पी साध गए,

मुझे मर्यादा स्मरण करा गये

क्या है मेरा दायरा बता दिया,

मित्रता से किनारा कर लिया

जो तुम्हारे क़िस्सों में सुन न पाई,

आज यकायक बात वो समझ में आई

तुम्हारी ख़ामोशी ने सब बयाँ कर दिया,

बरसों की जिज्ञासा का समाधान कर दिया

खामोशियों का अंदाज़ कितना अच्छा होता है,

ध्यान से सुनो बिन बोले सब बयाँ कर देता है।
                         मीनाक्षी मेहंदी

टिप्पणी: कभी कभी खामोशियाँ हमें वो सब बता देती हैं जो हम शब्दों में नहीं सुन पाते।ख़ामोशी सुनना एक कला है,जिससे प्रत्येक राज पता चल जाता है।
                          

Tuesday, 13 December 2016

मेरी कसक

"मेरी कसक"
कल्पित थी चंद आकांक्षाएं ,संचित थीं चंद इच्छाएं,
था कुछ ऐसा अंतरबोध,होगा विशिष्ट वार्तालाप,
पर कर यथार्थ का बोध,मौन रह गये शब्द।

उपस्थित थे नितान्त परिचित,साथ ही कोई अपरिचित,
सुनते रहे उनकी भी,सुनते रहे आपकी भी,
श्रोता बने ,वक्ता नहीं,और मौन रह गये शब्द।

आनन्दमय था समस्त वातावरण,तस्वीरें,अनुभव,किस्से,
साथ ही गायन वादन,आत्मसात किया सबको,
पुलकित हुआ मन किन्तु,मौन रह गये शब्द।

बुझने थे अनगिनत प्रश्न,दूर करनी थी उलझन,
शने शने हुये व्यतीत पल,चले लिये अवसादी मन,
समेटते एक विस्तार को पर,मौन रह गये शब्द।

ऐसा नहीं कुछ बुरा लगा,किन्तु ना कुछ अच्छा लगा,
जूझते हैं जिस अंतरद्वंद में,कह ना सके समक्ष में
है शेष अब भी कसक क्योंकि, मौन रह गये शब्द।


                मीनाक्षी मेहंदी

एक अभिलाषा

एक अभिलाषा

गंगाधर धरे मुझे शीश पर
मुक्त ना करे जटा मात्र भी कभी
चाहे भागीरथ करे घोर तप...

Sunday, 11 December 2016

हर्ष फायरिंग आख़िर कब तक?

हर्ष फायरिंग आखिर कब तक?
हर्ष फायरिंग से होने वाले हादसों के विषय में अक्सर सुनने पढ़ने में आता है किंतु जब किसी परिचित के  साथ ऐसा ये वाकया घटित होता है तो सम्वेदनाओं में अधिक विक्षोप आता है।कैसा दारुण पल रहा होगा एक दुल्हन बनी लड़की जो बारात आगमन के समाचार से प्रफुल्लित हो रही रही होगी अगले ही क्षण ह्रदय विदारक समाचार को सुन रही होगी।एक बहन का भाई ,एक परिवार का इकलौता चिराग असमय बुझ गया गया।कारण हर्ष उल्लास में की गयी फायरिंग।उफ़ क्या दुःखद हादसा है,खुशियों के पल दुःख के पल में बदल गये और कोई कुछ नहीं कर सकता।क्या विडम्बना है इस समाज की कि हर स्थिति को सुधारने के लिये सरकार और अदालत का मुख देखने की आदत सी बन गयी है।
    हम कब जिम्मेदार नागरिक बनेंगें ? समाज को सुधारने के लिये हमें भी चंद प्रयास करने चाहिये।
ये असहनीय दुःख परिवार व परिचितों को सहन करने की शक्ति ईश्वर दे ,ये लिखते हुए भी हाथ कांप रहे हैं।आगे से हर्ष फायरिंग पर रोक लगा ये हादसे बन्द हो जायें तो सम्भवतः हम दिवंगत को श्रद्धाँजली  अर्पित कर पायें।आइये प्रण करें अपने आसपास ऐसी घटना की पुनरावर्ती नहीं होने देंगे।

Saturday, 10 December 2016

पुरुष चन्द्रमा होता है

पुरुष चन्द्रमा होता है और स्त्री चाँदनी। चंद्र किरणों की भाँति पुरुष प्रेम धीरे धीरे बढ़ता रहता है और चाँदनी भी उतना ही निखरती रहती है।चमक बढ़ते बढ़ते एक  दिन पूर्णिमा आ जाती है और चंद्रमा पूर्ण ऊर्जा से देदीप्तयमान हो जाता है उस सम्पूर्ण प्रेम को पाकर चाँदनी भी दमका देती है समस्त धरा को
 किन्तु पूणिमा की ही भाँति पुरुष का प्रेम भी स्थाई नहीं रहता जीवन की उलझनें व समस्याएं उसके प्रेम की चमक धीरे धीरे क्षीण करने लगती हैं और एक दिन वो लुप्त हो जाता है अमावस्या के समान ।इसका अर्थ ये कदापि नहीं है कि उसके प्रेम में कोई कमी आ गयी है,बस ये पुरुष स्वभाव का कुदरती नियम है उसका प्रेम दृश्य रूप में घटता बढ़ता रहता है ठीक चन्द्रमा के जैसे। जब पुरुष के प्रेम में अमावस्या हो तो स्त्री को भी चाँदनी की तरह लुप्त हो जाना चाहिये व उस समय का सदुपयोग् करना चाहिये अपने मनभावन कार्यों को करने के लिये।पुरूष को समय देना चाहिये अपनी उलझनों को सुलझाने का ,तथा धैर्य का दामन थाम प्रतीक्षा करनी चाहिये अमावस्या का अंधकार दूर होने की।पुरुष का प्रेम पुनः प्रकट होगा व धीरे धीरे पुनः भर देगा पूर्णिमा का प्रकाश।प्रकृति प्रदत्त चक्र यूँ ही सक्रिय रहता है,इसे बिना विचलित हुये सहजता से लेना चाहिये।                                                     
जैसे चन्द्रमा दाग धब्बो के पश्चात भी मनोहारी लगता है ऐसे ही पुरूष कोई विशेष साज संवार करे बिना भी लुभावना लगता है उसे विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों की आवश्यकता नहीं होती।और वो चाहता भी है कि उसे उसके यथारूप में ही स्वीकार किया जाये अपनी अत्यधिक अपेक्षाओं का मुलम्मा चढ़ाये बिना। जैसे चन्द्रमा सूरज के तापयुक्त प्रकाश से चमकता है,ऐसे ही पुरूष अहम भी सुलगता है पूरी तीव्रता के साथ किन्तु जब वो अपनी प्रिया चाँदनी का साथ पाता है तो समस्त जगत को शीतलता देता है।
मुझे तो पुरूष चन्द्रमा समान ही लगता है और आपको.....?










Friday, 9 December 2016

मैं तुम्हारे संग जीना चाहती हूँ

मैं तुम्हारे संग जीना चाहती हूँ
किसी मेज पर अपने हाथों पर ठुड्डी टिकाये
अपलक देखते रहें एक दूसरे को
कुछ क्षण थम जाये समस्त सृष्टि
तुम्हारे नेत्रों से नेत्र मिलाते हुये...
बस कुछ ऐसे पल मैं तुम्हारे संग जीना चाहती हूँ

किसी सोफे पर साथ साथ पास पास
एक दूजे से सर व कंधे मिलाये
किसी कालजयी कृति को पढ़ते पढ़ते
पृष्ठ दर पृष्ठ परस्पर चर्चा करते जायें
बस कुछ ऐसे पल मैं तुम्हारे संग जीना चाहती हूँ

किसी अँधियारे हॉल के पर्दे पर
चित्रपट के प्रकाश व ध्वनियों के मध्य
तुम्हारा मधुर स्पर्श व चुलबुली सरगोशी
मुदित करे मुझे संवेदनशील दृश्य में भी
बस कुछ ऐसे पल मैं तुम्हारे संग जीना चाहती हूँ

किसी सागर की अतल गहराइयों में
देखूं अद्भुत जीवों का रोमांचक संसार
किसी पर्वत की असीम ऊँचाइयों पर
मिले तुम्हारे साथ की सुरक्षा व प्राणवायु
बस कुछ ऐसे पल मैं तुम्हारे संग जीना चाहती हूँ

किसी अरण्य के गूंजते निर्जन सन्नाटे में
वृक्ष झुरमुट में सूखे पत्तों की चरमराहट पर
किसी तालाब के दलदलीय तट पर बिछी
शैवालों की हरी दरी पर छेड़ें प्रणय क्रीड़ा
बस कुछ ऐसे पल मैं तुम्हारे संग जीना चाहती हूँ !
                             मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी:  ख्वाहिशें बहुत छोटी छोटी थीं मेरी 
              पूरी ना हुईं तो बड़ी लगने लगीं.....

Thursday, 8 December 2016

गम के पल



बसाया था तुमने कभी आँखों में मुझे नमी की तरह,
बहा दिया अब आँसू बना किसी ग़मी की तरह।
                                       mm

मेरे रंगरसिया


मेरे रंगरसिया
जैसा मुझको रंग गये ना रंगना किसी को जीवन में
चाहे पुनः ना मिलना,ना अपनाना अपने मन में

मेरी पहली नज़र मिली तुझसे जब से
नैन हुये सुरमई रंग में रंगें हुये तब से

मैं कोरी,मेरा अंतस भी था कोरा
तेरे सम्मोहन से रंगा रोम रोम मोरा

चढ़ गया हर अंग में गाढ़ा रंग तेरा
संदली सुगंध से महका मन मेरा

कई सिंदूरी दिवस बीते कई रात कारी
उतरती नहीं अब ये तेरी अजब रंगदारी

चाहे पुनः ना मिलना,ना अपनाना अपने मन में
जैसा मुझको रंग गये ना रंगना किसी को जीवन में
                                 
                                              मीनाक्षी मेहंदी

Wednesday, 7 December 2016

स्मरण तुम आते हो


स्मरण तुम आते हो
प्रातःकाल सूर्य रश्मियाँ
जब झाँकती झरोखों से
तब मेरे पूरे घर में
तुम आलोक बन छा जाते हो
मैं जाती सुबह सैर पर
मेरी पदचाप बन जाते हो
योग के ओंकार में
श्वास निश्वास बन जाते हो
जब करती हूँ पूजा अर्चना
आरती में समाहित हो
शंख,घंटा व करतल ध्वनि
बन कर्ण को गुंजाते हो
भोजन पकाती हूँ तो
रोटी में वाष्प बन जाते हो
जिह्वा को रसना देकर
मुझे ऊर्जा पहुंचाते हो
भिगती हूँ जब बारिश में
नयन में अश्रु बन जाते हो
मिट्टी की सौंधी सुगंध बन
नासिका को महकाते हो
गर्मी की झुलसाती धूप में
पसीने से होती लथपथ
मंद समीर बन कर तुम
मेरे गेसु उङाते हो
सर्दियों की कंपकपाहट में
ऊन का गोला बन जाते हो
फंदा फंदा बुनती तुम्हें
मुझे ऊष्मा पहुंचाते हो
बसंत के आगमन पर
नव पल्लव बन जाते हो
खिल जाते हो पुष्प बन
मेरी अंखियों को लुभाते हो
सम्मिलित होती उत्सव में
संगीत लहरी बन जाते हो
कदमताल मिलाते मुझसे
नृत्य सहचर बन जाते हो
पढ़ती हूँ जब कोई क़िताब
शब्द शब्द बन जाते हो
लिखती हूँ जब कोई कविता
अक्षर अक्षर बन जाते हो
दिन भर के श्रम से क्लांत
बिखर जाती हूँ शैया पर
तब मादक स्पर्श बन कर
मेरा रन्ध्र रन्ध्र सहलाते हो
निद्रा देवी की बाहों में
जब मैं झूल रही होती
तब भी आकर चुपके से
सवप्न मेरा बन जाते हो
प्रति पल प्रति क्षण प्रति घङी
स्मरण तुम आते हो
विस्मरित कभी होते नहीं
सदैव स्मरण तुम आते हो
स्मरण तुम आते हो!!!!
                 मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: विरहणी नायिका किस प्रकार अपने प्रिय को अपनी इंद्रियों द्वारा व ऋतु अनुसार अपने पास अनुभव करती है।उसके अंतस में उससे अधिक बस वो.......

Tuesday, 6 December 2016

बाँझ

सूरत सीरत का अदभुत मेल

थी हृदय की अति भोली

उत्साह उमंग संग पिया के

घर आँगन उतरी थी डोली

करते सभी रिश्तेदार प्रशंसा

बोलते स्नेह पगी मीठी बोली

सास ससुर की ममता ने

नित नवीन मिठास घोली

गूंजती रहती सदा रुनझुन सी

नन्द व देवर की हंसी ठिठोली

मंत्रमुग्ध हुई पिया मिलन से

तन मन की गाँठे सब खोलीं

हर रात लगती थी दीवाली

हर दिन लगता जैसे हो होली

दिवस माह बर्ष व्यतीत हुए

भर न सकी उसकी झोली

भाव परिवर्तित हो गए जग के

बातें छलनी कर मारे गोली

आंसुओं से तर रहने लगे

हरदम उसके दामन व चोली

स्नेह ममता के पुष्प झड़े

शेष रही तानों की डाली

कमी यदि है किसी जीवन में

पीड़ा समझो, न दो बाँझ गाली

मीनाक्षी मेहँदी

टिप्पणी: पीड़ित उदास नीर भरे नैना

भोर नहीं जीवन में बस अनंत साँझ

दुनिया कौंचती कह कर बाँझ

Monday, 5 December 2016

पौधा व लड़की

"पौधा व लड़की"
कभी अपने बचपन मेँ
मैंने अपने छुटपन मेँ
एक प्यारा फूलदार पौधा
उखाड़ा था सख्त ज़मीन से
बोया था उसे नरम मुलायम
खादयुक्त गमले की मिट्टी मेँ
पर न पनप सका वो
मैंने किये नाना जतन
किसी तरह खिल जाये वो
पर वो मुरझाता ही गया
हरित से पीत हो गया
शनेःशनेः नष्ट हो गया
ऐसा ही होता है जीवन
एक भारतीय लड़की का
मायके से जड़े उखाड़ कर
प्रत्यारोपित होती ससुराल मेँ
होता नहीं यदि सामंजस्य
घुटती रहती है हरदम
मुरझा जाती है वो
बिल्कुल पौधे की तरह
लेकिन मुझे कुछ पूछना है
क्या सारा दोष है पौधे का
जो बना ना पाया स्वयँ को
वातावरण के अनुकूल
क्या नहीं है कोई दोष
हवा,मिट्टी व पानी का
जो परिपोषित न कर पाये उसे
उभार न पाये उसकी क्षमता
क्या नहीं है कोई दोष
उसे बोने वाले हाँथो का
जिन्होंने समझना न चाहा
उसकी आवश्यकताओं को
की अपनी ही मनमानी
उसकी प्रकृती न जानी
हाँ सभी बराबर दोषी है
किन्तु कौन मानता है
समस्त दोषरोपण सदैव
पौधे पर ही होता  है
ये था ही नहीं योग्य
यहाँ पनपने के लिए
पौधा तो पौधा ही है
कुछ नहीं कह पाता है
सबकी सुनता रहता है
तथा मूक रह जाता है
लड़की नहीं है कोई पौधा
उसे मौनावरण तोड़ना होगा
अपने अधिकार जान कर
संसार से लड़ना होगा
जब तक सहती रहेगी
शोषित वो होती रहेगी
अपनी आकांक्षाएँ जानकर
पथप्रदर्शन करना होगा
अपने को पहचान कर
नया पग धरना होगा
अपना मनचाहा जीवन पा
जब सन्तुष्ट होगी वो
तभी हरी भरी होगी वो
पुष्पित पल्लवित होगी वो
            मीनाक्षी मेहँदी

Sunday, 4 December 2016

(एक दूजे के समांतर)
चौराहे होते हैं हर शहर की शान
सबका एक निराला नाम व आन बान
किन्तु अक्सर आपस में होते हैं अनजान
ऐसे ही हमारी भी है पृथक पहचान
उन चौराहों से निकलते हैं तमाम रास्ते
अलग अलग मंजिल पर जाने के वास्ते
रास्तों को होता है एक दूसरे से गुजरना
गुजरने का अर्थ नहीं आपस में मिलना
हम तुम मिलकर भी ना बनायें कोण
न चौकोर न आयत न ही कोई त्रिकोण
सभी अजनबी चौराहे हो जायें छूमंतर
बस यूँ ही चलें हम एक दूजे के समांतर।
                मीनाक्षी मेहंदी

Saturday, 3 December 2016

नोटबन्दी बनाम यादबन्दी



काश...!!!
   नोटबन्दी की भाँति तुम्हारी स्मृतियों की भी हो पाती यादबन्दी।सबसे छिपाकर रखे नोटों की तरह तुम्हारी जो यादें संजो रखी हैं वो समेट लेती और एकत्रित कर लेती एक साथ।
    प्रत्येक बटुये व वस्त्रों की तह में से जैसे खंगाल लिये पुराने नोट ऐसे ही मन व मस्तिष्क की प्रत्येक परत से निकाल लेती तुम्हारी कसमसाती यादें।सब जमा करा आती किसी बैंक में और बदल लेती उन्हें नये आभायुक्त गुलाबी पलों से।
   कुछ दिन दिक्कतें तो आतीं तुम्हारी यादें बदलने में किन्तु तत्पश्चात उन नये गुलाबी रंगों में सराबोर होकर बिसार देती तुम्हारे दिये हुये हर्ष व विषाद के लम्हों की अनुभूति।
   सम्भवतः तब भी प्रकट हो जाते अतीत का वार्तालाप बन कर या किसी चित्र के द्वारा....पुराने नोटों से जुड़े स्मरण तो बयां कर दिये जायेंगे किन्तु कैसे व्यक्त होंगी तुम्हारी स्मृतियां बेबाकी से...
 पुराने नोट बन्द होकर भी चलते रहेंगें हमारी बातचीत,क़िस्सों तथा हासपरिहास में....
ऐसे ही तुम्हारी यादें भी झाँक ही जायेंगी यदा कदा अतीत के झरोखों से ....
परन्तु तब भी मन में एक विचार आ रहा है बार बार....
काश !!!
  इतना ही सरल होता यादबंदी करना ठीक नोटबंदी की भाँति.....!!!!!
                           


Friday, 2 December 2016

सलोनी की कहानी(5)- काँच की चूड़ीयाँ


आज सलोनी ने काँच की खनखनाती चूड़ियाँ उतार दीं और सोने की चूड़ियाँ ही हाथ में रहने दीं जिससे विनीत की नींद ख़राब ना हो।तभी शयनकक्ष के द्वार पर दस्तक हुयी,सासु माँ कैप्सूल लिए खड़ी थी कि ये विनीत को रोज खिला दिया करना।तभी वो नाराज होने लगीं काँच की चूड़ियाँ उतार दीं? सिर्फ सोने की चूड़ियाँ तो विधवा महिला पहनती हैं।माँ की आवाज सुन विनीत ने सलोनी को आग्नेय नेत्रों से घूरा और आँगन में जाकर सो गया।सलोनी असमंजस के संग हाथ में थामे हुए लाल लाल कैप्सूल  देखते हुये सोच रही थी कि मांजी ने बद्दुआ उसे दी या अपने बेटे को।

टिप्पणी: बहु पराई होती है किंतु तुम्हारे घर से वो तन,मन व धन से समर्पित हो जुड़ती है,उसे आत्मीय समझ कर व्यवहार करके तो देखो ,अपनेपन की महक बिखरा कर तो देखो,एक नया रंग जीवन में बिखर जायेगा।

सलोनी की कहानी(4)- हाथ का पंखा

सलोनी ने सोचा अब वो अपने पति को कोई शिकायत का मौका नहीं देगी,उसकी हर सुविधा का ध्यान रखेगी।तभी चिपचिपाती उमस भरी गर्मी में बिजली गुल हो गयी।सलोनी प्रेम से पंख झलने लगी जिससे उसका जीवन साथी सुख से सो सके।अचानक उसका पति बड़बड़ाने लगा ओफ्फो ये तुम्हारी चूड़ियों की खन खन अच्छी खासी नींद का सत्यानाश कर दिया और बाहर आंगन में जाकर सो गया।सलोनी आवक हाथ में थमे पंखे को देखती रह गयी।

टिप्पणी: आज सलोनी के पति का नामकरण करते हैं,विनीत नाम जेहन में आ रहा है ,ठीक है आज से विनीत और सलोनी की कहानी।

Wednesday, 30 November 2016

अनमोल आँसू

"अनमोल आँसू"
झर झर बहे आँसू अनमोल
इनके बिना जीवन बेमोल
झर झर बहे आँसू अनमोल
विरह की वेदना से अनुतप्त
भावों के चंदन से सुरभित
झर झर बहे आँसू अनमोल
युगों से संचित था ज्वार
पलक बंधन टूट बहा क्षार
झर झर बहे आँसू अनमोल
घिर आई दुःख की बदली
बिजली बन पीड़ा मचली
झर झर बहे आँसू अनमोल
नहीं होते ये कमजोर निशानी
व्यक्त करते प्रीत की कहानी
झर झर बहे आँसू अनमोल
मन की सब बातें कहें नीर
बिन बोले उगलें दबी पीर
झर झर बहे आँसू अनमोल
बीते पल जब याद आते हैं
मन को ढाँढस ये बंधाते हैं
झर झर बहे आँसू अनमोल
आज भी सूखी नहीं है नमी
आँखों की कोर पर है जमी
झर झर बहे आँसू अनमोल
इनके बिना जीवन बेमोल
झर झर बहे आँसू अनमोल

                 मीनाक्षी मेंहदी
टिप्पणी: आँसू बहाना भी कभी कभी आवश्यक हो जाता है,सारा गुबार बह कर मन हल्का हो जाता है और यदि उन आँसुओं को कोई समझ जाये तो मन में नई उमंग भी भर जाती है......

Tuesday, 29 November 2016

तपता हुआ लोहा

मैं आग में तपता हुआ लोहा हूँ
अब है तेरे अख्तियार में
चाहे बना दे पात्र कोई
या ढाल दे हथियार में।


मैं भी आग में तपता लोहा हूँ,
तेरे पारंगत हस्त की चेष्टा से,
किसी आकर्षक आकार में ,
तेरे लिए ढल जाना चाहता हूँ।

Monday, 28 November 2016

मरीचिका


मरीचिका

जीवन में कभी कहीं भी
मिल पाता है क्या मनचाहा
दूसरों की समर्द्धी देख
मन सदा ही ललचाया
जो नहीं प्राप्त सहज ही
मानव को वो ही भाया
मरिचिका में भागे हरदम
करता अपना वक्त जाया
स्वनिहित कस्तूरी वन वन ढूँढे
कैसी है प्रभु की माया
व्याकुल रहता ये मन
रहस्य समझ ना आया
राम जैसा साथी मिला है
पर मन राधा सा क्यों पाया।

              मीनाक्षी मेंहदी

टिप्पणी: रीति रिवाजों से होता अगर कोई अपना,तो आज श्याम राधा का नहीं रुक्मणी का होता।

Sunday, 27 November 2016

मैं-प्रस्तर शिला

*मैं  - प्रस्तर शिला

मैं तट पर स्थित प्रस्तर शिला हूँ
तुम कोलाहल मचाती सागर लहर हो
तुम्हारे थपेड़ों से टकरा टकरा कर भी
मैं अविचल निष्क्रिय निस्पृन्द हूँ

तुम्हारे खारे पानी के स्पर्श से पड़ जाते हैं निशान
और भीगता रहता है थोड़ा थोड़ा अंतर मेरा

तुम्हारे निरन्तर प्रहारों से चटकती रहती हूँ
और बदलता रहता है थोड़ा थोड़ा रूप मेरा

तुम्हारी वेगमयी उमड़ती चोटों से होती चूर चूर
और बन बन रेत मिटता रहता है अस्तित्व मेरा

अभ्यस्त हो गयी हूँ तुम्हारे वेग,प्रहार व खारेपन की
अतिप्रिय लगने लगा है कोलाहल भरा ज्वार

किन्तु मत आने दिया करो कभी भी निर्मम भाटा
जिसमें मचता है शोर तुम्हारी असहनीय ख़ामोशी का

क्यूंकि तब व्यथित,व्याकुल हो जाती हूँ मैं
और निकालने लगती हूँ तुम्हारे मौन के कई अर्थ अनर्थ।

                मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: परिवर्तित हो जाता है रूप, एक पत्थर मंदिर में पूजनीय हो जाता है, राम के स्पर्श से पत्थर पावन हो जाता है,निरन्तर प्रयास से दशरथ मांझी जैसे पहाड़ तोड़ देते है तो एक शिला भी धीरे धीरे रेत बन सकती है यदि लहरें पूरी जिजीविषा से निरंतर प्रहार करती रहें तो......

Saturday, 26 November 2016

विलम्बित न्याय

फुटपाथ पर रक्त रह गया चित्कारता
बेघर बेसहारा जन्नतनशीं हो गए
जो अत्यधिक परिपूर्ण थे अर्थ से
वो ही इस युग में समर्थ हो गए
इंसाफ के मंदिर से थीं चंद उम्मीदें
विलंबित न्याय से निर्णय बेमानी हो गए
देर आये दुरुस्त आये सोचती रही जनता
उनको बाइज़्ज़त देख सब हैरान हो गए
कानून की आँखों पर बंधी रही पट्टी
इंसाफ के तराज़ू में नोट भारी हो गए
                 मीनाक्षी मेहंदी

Thursday, 24 November 2016

हम दोनों



"हम दोनों"
हम दोनों नदी के दो तट,
दूर दूर पर साथ साथ,
कई योजन तक हमारा विस्तार,
पर नहीं मिलते क्षितिज जैसे भी,
तुम बता रहे होते बाज़ार भाव,
मेरे कानों में कोयल कूकती,
तुम उलझते यथार्थ के झंझावत में,
मैं कल्पना में फूल खिलाती,
तुम्हारे लिए जीवन तनाव,कठिनाइयां,विभिन्न सन्त्रास,
मेरे लिये जीवन उत्सव,आनन्द,निरंतर मधुमास,

हम दोनों दो ध्रुव उत्तर दक्षिण चुम्बक के,
हमारे विरोधाभास ही केंद्रबिंदु आकर्षण के,
तुम केवल मुझे चाहते हो?
मैं जानती हूँ-पर मानती नहीं,
मैं केवल तुम्हें चाहती हूँ?
तुम नहीं जानते-पर मानते हो,
और ये जानना,मानना ही बन जाता है अटूट विश्वास,
जिसमें जुड़ कर प्रेम व समर्पण,
बना देता है हमारे मध्य सेतु,
चहलकदमी करने लगती हैं इस पर,
मेरे तुम्हारे रिश्तों की पदचाप,
और बहने लगती है "हमारे रिश्तों" की नदी,
कलकल हमें जोड़ती हुई।
            मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: विपरीत ध्रुवों में आकर्षण होता है ये सही है किंतु वो आकर्षण तभी कायम रह पाता है जब उसमें आकर्षण के साथ शामिल हो जाते हैं रिश्ते नाते जिम्मेदारियां और साथ साथ बिताये हँसी ख़ुशी और संग संग झेले गम के पल.....

Wednesday, 23 November 2016

क्या मुझे तुमसे प्यार है...

क्या मुझे तुमसे प्यार है ?
रूके रूके अटके कुछ झिझकते शब्दों में तुमने पूछा क्या मुझे तुमसे प्यार है
क्या कहूं क्या नहीं इसके प्रत्युत्तर में
आज तक इस प्यार को ही नहीं समझ पाई
कैसा है स्वरूप रंग ढंग इसका
सबने बताया अपनी मनोस्थिति अनुसार शब्दों में
आच्छादित किया भावनाओं की अभिव्यक्ति से
पर कोई परिभाषा कोई भी वाक्य
कर सकता है वणर्न इसका पूर्णयता
कदापि नहीं और न ही कभी इसे
व्यक्त किया जा सकेगा लिखित में
प्यार को वगीकृत भी किया जाता है
रिश्तो के अनुसार नापा तौला जाता है
तुमसे क्या है रिश्ता मेरा कौन समझ सकता है
ना हैं खून के नाते ना भावनाओं का बंधन
केवल इंसान से इंसान का ही नहीं है ये आत्मीय संबंध
कभी लगता है मैं तुम्हारी माँ थी पिछले जन्म में
कभी सोचती हूँ तुम्हें अपने पिता की तरह
कभी पग पग पर साथ देने वाले बंधु
कभी मुझे समझने वाले मित्र
कई रूपों में तुम द्रष्टिगत होते हो
पर ये ज्वलंत प्रश्न है-क्या मुझे तुमसे प्यार है
कहते हैं औरत प्यार ही करती है या नफरत ही
उसके मध्य का कोई मार्ग ज्ञात नहीं उसे
नफरत तो निस्संदेह तुमसे नहीं है मुझे
तो फिर प्यार ही होगा तुमसे
किन्तुु मुझे प्यार किससे नहीं है
जगत की प्रत्येक निर्जीव सजीव वस्तु से
प्रत्येक दृश्य अदृश्य कण से
बिखरी विचारधाराओं व कल्पनाओं से
सभी से है प्यार मुझे
हाँ तुमसे भी बेहद प्यार करती हूँ लेकिन
इसकी मात्रा रंग रूप नहीं बता सकती
अपना प्यार व्यक्त नहीं कर सकती
ना ही प्यार का प्रतिफल चाहती हूं
तुम भी अनुभव करो इसको सुगंध की तरह
रिश्तों का नाम देकर कम ना करो
इस असीम अगोचर अतुल्निय अकल्पनीय प्यार को
जो बिना बंधन बांधे है
तुम्हें और मुझे…….
                  मीनाक्षी मेहंदी

टिप्पणी: ये मेरी पहली रचना है इसलिए मुझे सर्वप्रिय है,जिसके लिए लिखी उन्हें कभी नहीं दे पायी या दे पाऊँगी या आवश्यकता ही नही उन्हें पढ़ाने की वो इन सब आकर्षणों से परे हैं,
 पर हाँ तब से मैंने अपनी भावनाओं को कलमबद्ध करना सीख लिया....
"इसलिये उन्हें कोटिशः धन्यवाद"

Tuesday, 22 November 2016

Messenger की मस्ती


(क्या खूब रही मैसेंजर पर)
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
जमाने के नए नए रंग आँखों के सामने आये
पापा के मित्र हम पर अपना स्नेह बरसाए
ताजे शेर पेश करके हमारा मान बढ़ाये
नन्नी गुड़िया की बेटी बड़ी हुई जान चकराए
अपने शुभ आशीष हम सब पर खूब बरसाये
पुरानी यादें ताज़ा कर मन भर आये
बीते पलों के मंजर आँखों के आगे आये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
सभी रिटायर मित्र अपनी रचनायें ले आये
खाली वक़्त में सबने लेखन लिया अपनाये
शौक मेरा मुझको बुज़ुर्गियत का अहसास कराये
पर सबकी वाहवाही ने हौसलें भी बढ़ाये
एक दूजे की खूबियां खामियां बताते जाये
मिलजुल रचनाओं से सजी दुनिया बनाये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
एक मित्र महोदय हमें देख खूब सकुचाये
तुम्हारा नाम अब अपनी पत्नी से कैसे छिपाएं
wapp पर पुरुष नाम save कर जान बचाय
तुम्हारी dp की फ़ोटो को मित्र की श्रीमती बताय
तुम बनी रहो यहीं पर हम भाग जायें
Meessengar delete कर ही सुकून पाये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
प्रथम दिन हमने भी अर्द्धरात्रि तक धमाल मचाये
चार मित्रों की डाँट पड़ी जब तब सोने को जाय
भेजा bouquet किसीको गड़बड़ emoji हाय
fontcolour बदल सबका पसंदीदा रंग दिखलाय
Wapp से डर नहीं लगता साहेब Meesengar से डर जाय
कुछ मित्रों ने तो ऐसे फ़िल्मी डॉयलॉग भी बरसाये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
             मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी : ऊपरवाले ने हास्यबोध तो ख़ूब बख़्शा है किंतु हास्य लिखने में हाथ तंग है,थोड़ा प्रयास किया है किसी पर व्यक्तिगत आपेक्ष नहीं है।बस यूँ ही बैठे ठाले हंसी ठिठोली.....

Monday, 21 November 2016

"Happy44th world hello day"



दुनिया इस वर्ष 44 वां हैलो दिवस मना रही है। विश्व के कुछ प्रमुख नेताओं ने दो देशों के मध्य दीर्धकालीन युद्ध का समाधान करने हेतु संवाद के जरिये शांति स्थापित करने का प्रयास किया।1973 में एक संधि तैयार की गयी जिस पर 180 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं।
  संवाद जीवन की आवश्यकता है,प्रत्येक जीवित प्राणी किसी ना किसी रूप में परस्पर संवाद करता है।नेत्र भाषा या भावभंगिमा के द्वारा भी संवाद किया जाता है।मुस्कान की अपनी अलग ही भाषा होती है जिसके द्वारा किसी अज़नबी से भी अपनेपन का संवाद कर सकते हैं।
   आज के तकनीकी युग में संवाद के आधुनिक तौर तरीक़े email,sms,blog, Twitter, chatting app telecommunication आदि विकसित हो गये हैं ।
विभिन्न messenger app हैं जिनसे पलक झपकते ही अपनों व ग़ैरों के संग विचार अभिव्यक्त करने की सुविधा प्राप्त हो गयी है।
Social network से हमारी मित्रता का दायरा देश,विदेश तक विस्तृत हो गया है।
 ये सब होने के पश्चात भी परस्पर बातचीत करने से अलग ही दिली सुकून मिलता है।
भाषा का अविष्कार होने के साथ ही संवाद भी मानव जीवन का अभिन्न अंग बन गया है।
 किसी के मन की गहराइयों में उतरने के लिये संवाद आवश्यक है।
एक दूसरे के मन की बात, शिक़वे-शिक़ायत व लाड़ दुलार की अभिव्यक्ति यदि हावभाव के साथ बोल कर भी की जाये तो अलग ही सुखद अनुभव होता है।
  अपनों को पत्र लिखना भी संवाद का ही एक हिस्सा है जो अब लुप्त होता जा रहा है।
  डायरी लिख कर हम स्वयं से संवाद करते हैं जिसमें अपने राग-द्वेष,भावुकता,निजी प्रसंग व्यक्त करके हल्का महसूस करते हैं।परस्पर संवाद करते रहने से तनाव व अवसाद भी दूर रहते हैं।
 अतः आज विश्व हैलो दिवस पर ये संकल्प लें कि परस्पर संवाद कायम रखेंगें और अपने मन के भाव किसी ना किसी रूप में व्यक्त करते रहेंगें, जैसे मैं व्यक्त कर रही हूँ अपने ब्लॉग के माध्यम से.....
" वृक्ष लतायें,पुष्प सब हिल हिल कर
करते हैं बातें हमसे नित झर झर कर
सभी प्राणी बोली या अपनी मूक दृष्टि से
कहते अपनी व्यथा या ख़ुशी झट से
हम भी करें अपनी भावनाओं का संचार
संवाद द्वारा रचें बंधुत्व युक्त प्यारा संसार"

टिप्पणी:
।।संवाद से हर विवाद का समाधान सम्भव है,इसलिये हैलो करते रहें।।
ये हैलो दिवस का खास सन्देश है।

Sunday, 20 November 2016

"तुम"- एक प्रेम समीकरण



"तुम - एक प्रेम समीकरण"
गणित विषय का आकर्षण है,
उसमें समाई अदभुत जादूगरी
इसके जोड़ भाग हैं जीवन में,
रचे उतार चढ़ाव की बाजीगरी
विभिन्न आँकड़ो से युक्त है ये,
अनूठा अदभुत अनुपम संसार
शून्य से अनंत तक का इसमें,
समाया अनोखा वृहद विस्तार
सबसे सुहावने लगते हैं वो ,
मान लो वाले जटिल सवाल
गढ़ते हैं अज्ञात पद व मान,
बुनते समीकरणों का जाल
ऐसे ही कल्पना जगत में,
'तुम' हो मेरा माना हुआ पद
तुम्हें मान व अपना प्रेम मिला,
रच देती हूँ कभी कोई पद्ध
'तुम' नहीं हो ,कहीं नहीं हो ,
ना जड़ में हो ना ही चेतन में
पर मेरे अज्ञात तुम बसे हो,
मेरे चिंतन एवं अवचेतन में
मेरा काल्पनिक प्रेम ज्यूँ हो,
गणित का सवाल उलझा
लगा लो कोई भी सूत्र ढूंढ के,
ये यूँ ही रहेगा अनसुलझा
'तुम' हो अंजान, स्वप्निल,
जगमगाते मेरा अंतरकरण
तथा उतर आते हो बन कर,
मेरी रचना में प्रेम समीकरण
                मीनाक्षी मेहंदी



टिप्पणी : ना तो कुछ पूरा झूठ होता है ना कुछ पूरा सच।कुछ सपना,कुछ यथार्थ ,कुछ कल्पना और कुछ कहीं अवचेतन में बसी कोई छवि। उसी से उतर कर आते हैं रचनाओं के पात्र ,जो कभी जाने पहचाने लगते हैं तो कभी अंजाने...कभी अपने से और कभी पराये.....

Saturday, 19 November 2016

प्रिय मित्र को समर्पित

तेरा मेरा नेहबंध कैसा है
समझे हो तुम कभी
मैँ तो जब भी कोशिश करती हूँ
कुछ सुलझा कुछ अनसुलझा_सा पाती हूँ
क्यों एक कसक सी है जीवन में............
मैं समझ नहीं पाती हूँ
मन बंट गया हो जैसे दो भागों में............
हर पल एक अधूरापन सा घेरा रहता है
सुबह सुबह अँगड़ाई के साथ ही
याद तुम्हारी आती है
साँझ लेकर आती है
जुदाई का गहरा सा अहसास
कैसा है ये अपना नेह बंध
कभी एकदम खुला कभी अनजाना सा
अगर तुम समझ पाये हो इस बंधन को
तो समझा दो मुझे भी
जिस तरह समझा देते हो हर बार
दोस्ती की नयी परिभाषा
कैसा है ये अपना नेहबंध
कैसा है ये अपना नेहबंध......

Note: Any Person can make you realise how wonderful the world is..
But
Only few will make you realise how wonderful you are in their world.
Care for those few..

Friday, 18 November 2016

तुम सवाल बहुत करती हो!!!

*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*

ये तुम्हारा उलाहना था,शिकायत या .....
यूँ ही कहा एक वाक्य जैसे कह देते हो तुम कुछ भी....

यदि ये उलाहना था....?
तो सुनो...
सवाल करती हूँ जिससे जान सकूँ तुम्हें और भी अधिक
कभी कभी हम जानना कुछ चाहते हैं,पूछते कुछ और हैं
कभी कभी कहा कुछ जाता है,
समझते हम कुछ और ही
ये बात तुम भी समझते हो
फिर भी दे दिया मीठा सा उलाहना......
*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*

यदि ये शिकायत थी .....?
तो सुनो ...
सवाल करती हूँ जिससे दूर हो मध्य परसी ख़ामोशी
ख़ामोशी ना राह बताती है ना चाह,देती है नाउम्मीदी का अँधेरा
ख़ामोशी की दीवार से टकरा,
शब्द खो देते हैं अपने अर्थ
इसी दीवार को ढाने का, प्रयास होता है मेरे सवालों में
ये बात तुम भी मानते हो
फिर भी कर दी मीठी सी
शिकायत......
*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*

यूँ ही कहा एक वाक्य...?
तो सुनो...
सवाल करती हूँ यूँ ही जिससे बतिया सकूं कुछ पल तुमसे
अच्छा लगता है तुमको उलझाना, अटपटे सवालों में
अच्छा लगता है हँसना तुम्हारे
चटपटे जवाबों पर
यही हँसी ख़ुशी के पल हरदम बाटतीं हूँ तुम्हारे साथ
ये मिठास तुम्हें भी भाती है,
तभी तो तुम भी कह देते हो मुझसे यूँ ही.....
*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*


           *मीनाक्षी मेहंदी*

टिप्पणी: तल्ख हैं जो लोग वो ही दिल को मेरे भाये है
तल्ख़ हो बेशक जुबाँ से दिल से कोमल पाए है...........

Thursday, 17 November 2016

अर्थ का अर्थ



"धन संसाधन उपलब्ध करा सकता है किंतु विकल्प नहीं बन सकता"
 आदिमानव को जीवन सुचारू रूप से चलाने हेतु माँस,गुफा,खाल व हथियार चाहिए होते थे।कभी किसी भूखे आदिमानव ने अपनी किसी अतिरिक्त वस्तु को देने की पेशकश की होगी और जिस मानव पर माँस अतिरिक्त होगा उसने उसे खाल ,आवास या हथियार के बदले भोजन उपलब्ध करा दिया होगा।इस तरह से उपलब्ध संसाधनों का आदान प्रदान शुरू हुआ होगा।ये प्रथा सदियों से चली आ रही है तथा किसी ना किसी रूप में अब भी प्रचलित है।
    धीरे धीरे संसाधनों की विभिन्नता के संग आवश्यकता अनुभव हुई एक प्रतीक पूंजी की जिसे संग्रहित किया जा सके एवं अन्य मानवों से आवश्यकता होने पर उपलब्ध साधन क्रय किये जा सकें।
     किसी दुर्लभ धातु को अनाज,पालतू पशुओं,हथियार व अन्य आवश्यक वस्तुओं की सूची में सम्मलित कर लिया गया जिसके टुकड़ों अथवा सिक्कों से संसाधन क्रय किये जा सकते थे।
  प्रतीक मुद्रा के प्रयोग से मानव के इतिहास में बड़ा  क्रांतिकारी परिवर्तन आया,
अब मानव एक ही वस्तु का उत्पादन करके उससे प्रतीक मुद्रा के बदले विक्रय कर अपनी अन्य आवश्यक वस्तुएं क्रय कर लेता था।
 ये पूंजीवादी परिपाटी इतनी सुविधाजनक हो गयी कि अधिकांश व्यक्तियों को लगने लगा कि रुपया पैसा ही जीवन का आधार है।
    धन,सोना ,चांदी व अन्य कीमती वस्तुओं का मूल्य तभी तक है जब तक वो हमें प्रकृति द्वारा उपलब्ध विभिन्न संसाधन उपलब्ध कराते हैं,यदि आप किसी सुनसान जगह पहुँच जाते हैं तब जीवित रहने में आपकी जेब में धरी नोटों की गड्डियां व तन पर लादा हुआ सोना चांदी सहायक नही होगा।
   ये केवल प्रतीक हैं प्रकृति द्वारा उपलब्ध संसाधनों को सुविधापूर्वक प्राप्त करने हेतु।
  " इस अर्थ(धन) के महत्व का अर्थ समझ लें तो जीवन अर्थपूर्ण हो जायेगा।"


टिप्पणी: रजनीश का कथन है "तुम जिसको पैसा समझते हो वह एक मान्यता है अगर किसी दिन सरकार बदल जाए और रातोंरात यह एलान किया जाए कि फलाँ-फलाँ नोट नहीं चलेगा तो तुम क्या करोगे ? मान्यता को बदलने में देर कितनी लगती है? चंद कागज के टुकड़ों पर किसी का चित्र और हस्ताक्षर करने से वह मुद्रा बन गई और व्यवहारिक काम में आने लगी ... अब मान्यता बदल गई तो वह मुद्रा दो कौड़ी की हो जाएगी ... सारा खेल मान्यता का है .... जड़ वस्तुऐं मूल्यहीन हैं महज एक मान्यता है जिसने उन्हे मूल्यवान बना दिया है .... स्वर्ण रजत हीरे मुद्रा इनका मूल्य महज मान्यता का आरोपण है। जिस दिन तुम जगत की मान्यताओं से मुक्त हो गये उस दिन सब मिट्टी हो जाएगा उस दिन तुम चेतना को उपलब्ध होगे जो अनमोल है"