*मैं - प्रस्तर शिला
मैं तट पर स्थित प्रस्तर शिला हूँ
तुम कोलाहल मचाती सागर लहर हो
तुम्हारे थपेड़ों से टकरा टकरा कर भी
मैं अविचल निष्क्रिय निस्पृन्द हूँ
तुम्हारे खारे पानी के स्पर्श से पड़ जाते हैं निशान
और भीगता रहता है थोड़ा थोड़ा अंतर मेरा
तुम्हारे निरन्तर प्रहारों से चटकती रहती हूँ
और बदलता रहता है थोड़ा थोड़ा रूप मेरा
तुम्हारी वेगमयी उमड़ती चोटों से होती चूर चूर
और बन बन रेत मिटता रहता है अस्तित्व मेरा
अभ्यस्त हो गयी हूँ तुम्हारे वेग,प्रहार व खारेपन की
अतिप्रिय लगने लगा है कोलाहल भरा ज्वार
किन्तु मत आने दिया करो कभी भी निर्मम भाटा
जिसमें मचता है शोर तुम्हारी असहनीय ख़ामोशी का
क्यूंकि तब व्यथित,व्याकुल हो जाती हूँ मैं
और निकालने लगती हूँ तुम्हारे मौन के कई अर्थ अनर्थ।
मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: परिवर्तित हो जाता है रूप, एक पत्थर मंदिर में पूजनीय हो जाता है, राम के स्पर्श से पत्थर पावन हो जाता है,निरन्तर प्रयास से दशरथ मांझी जैसे पहाड़ तोड़ देते है तो एक शिला भी धीरे धीरे रेत बन सकती है यदि लहरें पूरी जिजीविषा से निरंतर प्रहार करती रहें तो......
मैं तट पर स्थित प्रस्तर शिला हूँ
तुम कोलाहल मचाती सागर लहर हो
तुम्हारे थपेड़ों से टकरा टकरा कर भी
मैं अविचल निष्क्रिय निस्पृन्द हूँ
तुम्हारे खारे पानी के स्पर्श से पड़ जाते हैं निशान
और भीगता रहता है थोड़ा थोड़ा अंतर मेरा
तुम्हारे निरन्तर प्रहारों से चटकती रहती हूँ
और बदलता रहता है थोड़ा थोड़ा रूप मेरा
तुम्हारी वेगमयी उमड़ती चोटों से होती चूर चूर
और बन बन रेत मिटता रहता है अस्तित्व मेरा
अभ्यस्त हो गयी हूँ तुम्हारे वेग,प्रहार व खारेपन की
अतिप्रिय लगने लगा है कोलाहल भरा ज्वार
किन्तु मत आने दिया करो कभी भी निर्मम भाटा
जिसमें मचता है शोर तुम्हारी असहनीय ख़ामोशी का
क्यूंकि तब व्यथित,व्याकुल हो जाती हूँ मैं
और निकालने लगती हूँ तुम्हारे मौन के कई अर्थ अनर्थ।
मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: परिवर्तित हो जाता है रूप, एक पत्थर मंदिर में पूजनीय हो जाता है, राम के स्पर्श से पत्थर पावन हो जाता है,निरन्तर प्रयास से दशरथ मांझी जैसे पहाड़ तोड़ देते है तो एक शिला भी धीरे धीरे रेत बन सकती है यदि लहरें पूरी जिजीविषा से निरंतर प्रहार करती रहें तो......
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