Monday, 28 November 2016

मरीचिका


मरीचिका

जीवन में कभी कहीं भी
मिल पाता है क्या मनचाहा
दूसरों की समर्द्धी देख
मन सदा ही ललचाया
जो नहीं प्राप्त सहज ही
मानव को वो ही भाया
मरिचिका में भागे हरदम
करता अपना वक्त जाया
स्वनिहित कस्तूरी वन वन ढूँढे
कैसी है प्रभु की माया
व्याकुल रहता ये मन
रहस्य समझ ना आया
राम जैसा साथी मिला है
पर मन राधा सा क्यों पाया।

              मीनाक्षी मेंहदी

टिप्पणी: रीति रिवाजों से होता अगर कोई अपना,तो आज श्याम राधा का नहीं रुक्मणी का होता।

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