मरीचिका
जीवन में कभी कहीं भी
मिल पाता है क्या मनचाहा
दूसरों की समर्द्धी देख
मन सदा ही ललचाया
जो नहीं प्राप्त सहज ही
मानव को वो ही भाया
मरिचिका में भागे हरदम
करता अपना वक्त जाया
स्वनिहित कस्तूरी वन वन ढूँढे
कैसी है प्रभु की माया
व्याकुल रहता ये मन
रहस्य समझ ना आया
राम जैसा साथी मिला है
पर मन राधा सा क्यों पाया।
मीनाक्षी मेंहदी
टिप्पणी: रीति रिवाजों से होता अगर कोई अपना,तो आज श्याम राधा का नहीं रुक्मणी का होता।
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