क्यूँ विवश….?
क्या यही जीवन मैंने चाहा था
एक पंखहीन पंछी की भांति
कैद रहूँ पिंजरे की चारदीवारी में
यूँ ही युग युगान्तर तक
हाँ,बेहद सुरक्षित हूँ यहाँ
पर मुझे आकर्षित करता है
विशाल व्योम,मेरे पंखो के अवशेष करते हैं प्रेरित
की मैं उडूं,फङफङाऊं तोड़ दूँ
दुनिया के सभी बंधन
मुक्त हो जाऊँ कहीं भी
बैठने और चुगने के लिए
ज्ञात है ये जीवन सुगम नहीं होगा
मासूम परिंदे के लिए नहीं है ये दुनिया
हर मोड़ पर आधात लगाये बैठे हैं
बाज, व्याध्र और मनुष्य जैसे खतरे
सुरक्षा नहीं भाती है मुझे
विपत्तियों से खेलना है मुझे
किन्तु कहाँ से लाऊं साहस
सामाजिक बंधन तोड़ने का
सोचा हुआ संभव नहीं हो सकता
सिसकते हुये दम तोड़ देंगी
मेरी समस्त इच्छायें
काश….मेरे एक प्रश्न का
उत्तर दे कोई
“क्यूँ विवश हो जाते हैं
हम उनके ही सामने जिन्हें
सबसे अधिक प्यार करते है…?
मीनाक्षी मेहंदी
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