Monday, 5 December 2016

पौधा व लड़की

"पौधा व लड़की"
कभी अपने बचपन मेँ
मैंने अपने छुटपन मेँ
एक प्यारा फूलदार पौधा
उखाड़ा था सख्त ज़मीन से
बोया था उसे नरम मुलायम
खादयुक्त गमले की मिट्टी मेँ
पर न पनप सका वो
मैंने किये नाना जतन
किसी तरह खिल जाये वो
पर वो मुरझाता ही गया
हरित से पीत हो गया
शनेःशनेः नष्ट हो गया
ऐसा ही होता है जीवन
एक भारतीय लड़की का
मायके से जड़े उखाड़ कर
प्रत्यारोपित होती ससुराल मेँ
होता नहीं यदि सामंजस्य
घुटती रहती है हरदम
मुरझा जाती है वो
बिल्कुल पौधे की तरह
लेकिन मुझे कुछ पूछना है
क्या सारा दोष है पौधे का
जो बना ना पाया स्वयँ को
वातावरण के अनुकूल
क्या नहीं है कोई दोष
हवा,मिट्टी व पानी का
जो परिपोषित न कर पाये उसे
उभार न पाये उसकी क्षमता
क्या नहीं है कोई दोष
उसे बोने वाले हाँथो का
जिन्होंने समझना न चाहा
उसकी आवश्यकताओं को
की अपनी ही मनमानी
उसकी प्रकृती न जानी
हाँ सभी बराबर दोषी है
किन्तु कौन मानता है
समस्त दोषरोपण सदैव
पौधे पर ही होता  है
ये था ही नहीं योग्य
यहाँ पनपने के लिए
पौधा तो पौधा ही है
कुछ नहीं कह पाता है
सबकी सुनता रहता है
तथा मूक रह जाता है
लड़की नहीं है कोई पौधा
उसे मौनावरण तोड़ना होगा
अपने अधिकार जान कर
संसार से लड़ना होगा
जब तक सहती रहेगी
शोषित वो होती रहेगी
अपनी आकांक्षाएँ जानकर
पथप्रदर्शन करना होगा
अपने को पहचान कर
नया पग धरना होगा
अपना मनचाहा जीवन पा
जब सन्तुष्ट होगी वो
तभी हरी भरी होगी वो
पुष्पित पल्लवित होगी वो
            मीनाक्षी मेहँदी

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