
किन्तु पूणिमा की ही भाँति पुरुष का प्रेम भी स्थाई नहीं रहता जीवन की उलझनें व समस्याएं उसके प्रेम की चमक धीरे धीरे क्षीण करने लगती हैं और एक दिन वो लुप्त हो जाता है अमावस्या के समान ।इसका अर्थ ये कदापि नहीं है कि उसके प्रेम में कोई कमी आ गयी है,बस ये पुरुष स्वभाव का कुदरती नियम है उसका प्रेम दृश्य रूप में घटता बढ़ता रहता है ठीक चन्द्रमा के जैसे। जब पुरुष के प्रेम में अमावस्या हो तो स्त्री को भी चाँदनी की तरह लुप्त हो जाना चाहिये व उस समय का सदुपयोग् करना चाहिये अपने मनभावन कार्यों को करने के लिये।पुरूष को समय देना चाहिये अपनी उलझनों को सुलझाने का ,तथा धैर्य का दामन थाम प्रतीक्षा करनी चाहिये अमावस्या का अंधकार दूर होने की।पुरुष का प्रेम पुनः प्रकट होगा व धीरे धीरे पुनः भर देगा पूर्णिमा का प्रकाश।प्रकृति प्रदत्त चक्र यूँ ही सक्रिय रहता है,इसे बिना विचलित हुये सहजता से लेना चाहिये।
जैसे चन्द्रमा दाग धब्बो के पश्चात भी मनोहारी लगता है ऐसे ही पुरूष कोई विशेष साज संवार करे बिना भी लुभावना लगता है उसे विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों की आवश्यकता नहीं होती।और वो चाहता भी है कि उसे उसके यथारूप में ही स्वीकार किया जाये अपनी अत्यधिक अपेक्षाओं का मुलम्मा चढ़ाये बिना। जैसे चन्द्रमा सूरज के तापयुक्त प्रकाश से चमकता है,ऐसे ही पुरूष अहम भी सुलगता है पूरी तीव्रता के साथ किन्तु जब वो अपनी प्रिया चाँदनी का साथ पाता है तो समस्त जगत को शीतलता देता है।
मुझे तो पुरूष चन्द्रमा समान ही लगता है और आपको.....?
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