"पतंग"
बचपन में पतंग उड़ाने का था तुम्हें शौक विशेष
कहीँ दबे हैं अब भी तुम्हारे मन मेँ वो अवशेष
अनायस नियति ने एक दिन मुझे बना दिया पतंग
कट कर गिरी धरा पर और उठा ले गए तुम संग
बनाया था कभी किसी ने मुझे बड़े लाड़ चाव से
मांग कर ले गया था कोई ख़ुशी व लगाव से
पर वो अनाड़ी अनुभवहीन मुझे संभाल न पाया
कटी मेरी डोर तुम्हारे हाथ मेँ स्वयं को पाया
तुम्हारे दक्ष हाथों ने बांध दी मुझमें नयी डोर
कुलांचे भरती मैं उड़ गयी आकाश की ओर
पहली बार देख कर ऊँचाइयां हुई मैं मुदित
नूतन परिवेश पाकर मुख पर आयी स्मित
जी भर कर उड़ाया मुझे जब जब हुए तुम बोर
मैं भी साथ देती तुम्हारा संध्या हो या भोर
ढीली होती जब भी डोर काँपता मेरा अंतर
कटने,उलझने का नहीं साथ छूटने का लगता डर
तुम्हारा सामीप्य ना मिले होगा ना ये गवारा
लगता अभी गिरी तभी संभाल लेते खींच कर दुबारा
कभी ख़ुशी कभी गम देती ये तुम्हारी खीचंतानी
कुछ पल की प्रसन्नता हेतु सहती हर मनमानी
तदुपरान्त मुझे उड़ाने के बढ़ने लगे समयान्तराल
प्रतीक्षारत रहती मैं कैसा डाला ये मोहजाल
मुझे कोने में रख कई कई दिवस भूल जाते हो
विकल्प न होता कोई तब मुझसे मन बहलाते हो
तुम्हारा वियोग मुझको देता है सदैव अपार पीड़ा
पर बिसार देती हूं सब करते हो जब संग क्रीड़ा
कामना करती हूं कभी तो मिलेगा प्रेम सतत
इसी झूठी आस में काटती ये जीवन अभिशप्त
कटने और छूटने के भय से हर पल रहती हूं तंग
पर बनी रहना चाहती हूं यूं ही सदा तुम्हारी पतंग
मीनाक्षी मेहंदी
बचपन में पतंग उड़ाने का था तुम्हें शौक विशेष
कहीँ दबे हैं अब भी तुम्हारे मन मेँ वो अवशेष
अनायस नियति ने एक दिन मुझे बना दिया पतंग
कट कर गिरी धरा पर और उठा ले गए तुम संग
बनाया था कभी किसी ने मुझे बड़े लाड़ चाव से
मांग कर ले गया था कोई ख़ुशी व लगाव से
पर वो अनाड़ी अनुभवहीन मुझे संभाल न पाया
कटी मेरी डोर तुम्हारे हाथ मेँ स्वयं को पाया
तुम्हारे दक्ष हाथों ने बांध दी मुझमें नयी डोर
कुलांचे भरती मैं उड़ गयी आकाश की ओर
पहली बार देख कर ऊँचाइयां हुई मैं मुदित
नूतन परिवेश पाकर मुख पर आयी स्मित
जी भर कर उड़ाया मुझे जब जब हुए तुम बोर
मैं भी साथ देती तुम्हारा संध्या हो या भोर
ढीली होती जब भी डोर काँपता मेरा अंतर
कटने,उलझने का नहीं साथ छूटने का लगता डर
तुम्हारा सामीप्य ना मिले होगा ना ये गवारा
लगता अभी गिरी तभी संभाल लेते खींच कर दुबारा
कभी ख़ुशी कभी गम देती ये तुम्हारी खीचंतानी
कुछ पल की प्रसन्नता हेतु सहती हर मनमानी
तदुपरान्त मुझे उड़ाने के बढ़ने लगे समयान्तराल
प्रतीक्षारत रहती मैं कैसा डाला ये मोहजाल
मुझे कोने में रख कई कई दिवस भूल जाते हो
विकल्प न होता कोई तब मुझसे मन बहलाते हो
तुम्हारा वियोग मुझको देता है सदैव अपार पीड़ा
पर बिसार देती हूं सब करते हो जब संग क्रीड़ा
कामना करती हूं कभी तो मिलेगा प्रेम सतत
इसी झूठी आस में काटती ये जीवन अभिशप्त
कटने और छूटने के भय से हर पल रहती हूं तंग
पर बनी रहना चाहती हूं यूं ही सदा तुम्हारी पतंग
मीनाक्षी मेहंदी
bahut achchhi rachna
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