Friday, 31 March 2017

कूष्माण्डा माँ चतुर्थ दिवस

 कूष्माण्डा
‘कू’ का अर्थ है छोटा, ‘इश’ का अर्थ है ऊर्जा और ‘अंडा’ का अर्थ है ब्रह्मांडीय गोला – सृष्टि या ऊर्जा का छोटे से वृहद ब्रह्मांडीय गोला| यह बड़े से छोटा होता है और छोटे से बड़ा ; यह बीज से बढ़ कर फल बनता है और फिर फल से दोबारा बीज हो जाता है| इसी प्रकार, ऊर्जा या चेतना में सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होने की और विशाल से विशालतम होने का विशेष गुण है; जिसकी व्याख्या कूष्मांडा करती हैं|
      कूष्माण्डा माँ को कोटि कोटि नमन।

Thursday, 30 March 2017

चंद्रघण्टा

चन्द्रघंटा
प्राय:, हम अपने मन से ही उलझते रहते हैं – सभी नकारात्मक विचार हमारे मन में आते हैं, ईर्ष्या आती है, घृणा आती है और आप उनसे छुटकारा पाने के लिये और अपने मन को साफ़ करने के लिये संघर्ष करते हैं|   किन्तु ऐसा नहीं होने वाला| आप अपने मन से छुटकारा नहीं पा सकते| आप कहीं भी भाग जायें, चाहे हिमालय पर ही क्यों न भाग जायें, आपका मन आपके साथ ही भागेगा| यह आपकी छाया के समान है|हाँ, प्राणायाम, सुदर्शन क्रिया बहुत सहायक हो सकते हैं; पर फिर भी मन सामने आ ही जाता है| मन को घंटे की ध्वनि के समान स्वीकार करें – घंटे की ध्वनि एक होती है, यह कई नहीं हो सकती, यह केवल एक ही ध्वनि उत्पन्न कर सकता है - सभी छायाओं के बीच मन में एक ही ध्वनि ! सारी अस्तव्यस्तता दैवीय शक्ति का उद्भव करती है – वो है चन्द्रघंटा अर्थात् चन्द्र और घंटा|
       घण्टे की नाद से समस्त विकार दूर करने वाली देवी को कोटि कोटि नमन।

Wednesday, 29 March 2017

ब्रह्मचारिणी

ब्रह्मचारिणी
ब्रह्मचारिणी का अर्थ है अनंत में व्याप्त, अनंत में गतिमान – असीम| ब्रह्मा असीम है जिसमें सबकुछ समाहित है| आप यह नहीं कह सकते कि, ‘मैं इसे जानता हूँ’, क्योंकि यह असीम है; जिस क्षण ‘आप जान जाते हैं’, यह सीमित बन जाता है और अब आप यह नहीं कह सकते कि, “मैं इसे नहीं जानता”, क्योंकि यह वहां है – तो आप कैसे नहीं जानते? क्या आप कह सकते हैं कि, ”मैं अपने हाथ को नहीं जानता| आपका हाथ तो वहां है न| है न ? इसलिये, आप इसे जानते हैं| ब्रह्म असीम है, इसलिये आप इसे नहीं जानते – आप इसे जानते हैं और फिर भी आप इसे नहीं जानते| दोनों ! इसीलिये, यदि कोई आपसे पूछता है तो आपको चुप रहना पड़ता है| जो लोग इसे जानते हैं वे बस चुप रहते हैं क्योंकि यदि मैं कहता हूँ कि, “मैं नहीं जानता” , मैं पूर्णत: गलत हूँ और यदि मैं कहता हूँ कि, “मैं जानता हूँ”, तो मैं उस जानने को शब्दों द्वारा, बुद्धि द्वारा सीमित कर रहा हूँ| इस प्रकार, ब्रह्मचारिणी वो है, जोकि असीम में विद्यमान है, असीम में गतिमान है| गतिहीन नहीं, बल्कि अनंत में गतिमान| ये बहुत ही रोचक है – एक गतिमान होना, दूसरा विद्यमान होना|ब्रह्मचर्य का अर्थ है तुच्छता में न रहना, आंशिकता से नहीं पूर्णता से रहना| इस प्रकार, ब्रह्मचारिणी चेतना है, जोकि सर्व-व्यापक है|

प्रथम दिवस माँ शैलपुत्री

माँ दुर्गा के ९ रूप |

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।

शैलपुत्री ब्रह्मचारिणी चन्द्रघंटा कूष्माण्डा स्कंदमाता कात्यायनी कालरात्रि महागौरी
सिद्धिदात्री

देवी माँ या निर्मल चेतना स्वयं को सभी रूपों में प्रत्यक्ष करती है और सभी नाम ग्रहण करती है| हर रूप और हर नाम में एक दैवीय शक्ति को पहचानना ही नवरात्रि मनाना है|
|| या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ||

शैलपुत्री
शैल का अर्थ है शिखर| दुर्गा को शैल पुत्री क्यों कहा जाता है, यह बहुत दिलचस्प बात है| जब ऊर्जा अपने शिखर पर होती है, केवल तभी आप शुद्ध चेतना या देवी रूप को देख, पहचान और समझ सकते हैं| उससे पहले, आप नहीं समझ सकते, क्योंकि इसकी उत्त्पति शिखर से ही होती है – किसी भी अनुभव के शिखर से| यदि आप 100% क्रोधित हैं, तो आप देखें कि किस प्रकार क्रोध आपके सारे शरीर को जला देता है| किसी भी चीज़ का 100% आपके सम्पूर्ण अस्तित्त्व को घेर लेता है – तब ही वास्तव में दुर्गा की उत्पत्ति होती है|






Tuesday, 28 March 2017

नव सम्वत की शुभकामनाएं


वैदिक नववर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् 2074 (28 मार्च, 2017)" की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ।

Monday, 27 March 2017

live in relationship

 live-in relationship क्या है?
दो वयस्क व्यक्ति समान्यतः स्त्री पुरुष बिना कोई समाजिक बंधन मानते हुए अथवा बिना वैवाहिक संबंध के साथ रहते हैं उसे लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं।
  आजकल ये सम्बन्ध बढ़ते जा रहे हैं इसका कारण है उन्मुक्त जीवन की आकांक्षा।जब तक मन करा साथ रहे जब मन हो अलग हो जाओ बिना किसी क़ानूनी दावँ पेंच के, कोई किसी की आज़ादी में दखल अन्दाजी ना करे अपनी इच्छानुसार जियो।विवाह करने में तो कई बातों का ध्यान रखना होता है ,पर लिव इन में परिवारजनों और समाज की परम्पराओं का पालन करना जरूरी नही है।
        कई बार किसी ऐसे व्यक्ति से प्रेम हो सकता है जिससे विवाह करने में कई पारिवारिक व सामाजिक अड़चनें होती हैं तब विवश्तास्वरूप भी जोड़े लिवइन में रहने को सुगम मार्ग समझते हैं।
      क्रान्ति युगे युगे ,हर युग में पहले से चली आ रही मान्यताओं और परम्परा के विरुद्ध युवा आवाज़ उठाता रहा है अधिकतर जन विरुद्ध ही होते हैं पर परिवर्तन हर युग में अपनी जगह बनाता है,कई लोग तन से साथ होते हैं पर मन से किसी और के साथ रहते हैं ये भी तो एक लिव इन ही है........
कुछ लोगों की मान्यता है कि व्यक्ति यदि विवाह संस्था को ना माने तो पुनः जानवर या आदि मानव बन जायेगा परन्तु  सभ्य बन कर भी क्या प्राप्त कर लिया मानव ने....रोज के झगड़े,तनाव.... बच्चों के कारण साथ रहने की विवशता ,इससे अच्छा है ,लिवइन में रहना,सच कहूँ तो लिव इन में ही सही मायने में स्वतंत्रता है,जिसमे कोई लिंगभेद नहीं होता दोनों इंसान बन कर रहते हैं अपनी अपनी इच्छा व रुचिनुसार जी सकते हैं,बिना किसी पाबंदी के एक दूसरे का सम्मान करते हुए।
जैसे विवाह रूपी संस्था में कुछ वचन लिए जाते हैं ऐसे ही लिव इन में भी कुछ बिन्दू स्पष्ट होने चाहिए
1 कौन किस किस मद में कितना खर्चा करेगा
2 दोनों की दिनचर्या के अनुसार कार्यों का विभाजन
3 यदि सन्तान हुई तो उसका निर्वाह और भरण पोषण दोनों करेंगे किन्तु अलग होने पर उसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा
4 किसी एक के  परिवारजनों को यदि कोई आपत्ति है तो दूसरे को उससे कोई मतलब नही अपने परिजनों को स्वयं समझाओ।
5 अलग होने के पश्चात एक दूसरे पर अनर्गल आपेक्ष कोई प्रत्यरोपित नहीं करेगा
इसके अलावा अन्य बिंदुओं पर भी सहमति अपनी परिस्थिति अनुसार की जा सकती है।
लिव इन से दहेज,घरेलु हिंसा,जातिप्रथा आदि दोष भी   स्वतः समाप्त हो जायेंगे।
        प्रत्येक  सिक्के के दो पहलू होते हैं, कुछ अच्छा होता है कुछ बुरा उसे किस तरह उपयोग करें ये हमारे ऊपर निर्भर करता है ।
   कई कबीलाई संस्कृतियों में अब भी ये प्रथा है कि विवाह पूर्व जोड़े संग रह कर देखतें हैं कि वो एक दूसरे के योग्य हैं या नहीं यदि सहमति हुई तो विवाह सम्बन्ध तय कर दिया जाता है अन्यथा नहीं।
     सबसे बड़ी बात रिश्ता चाहे समाजिक मान्यता प्राप्त हो या ना हो, यदि दिल से जुड़ा है और विश्वास पर टिका है तभी चलता है अन्यथा नही वरना सामाजिक मान्यतायों अनुसार किये गए विवाह में भी कुछ जोड़े पृथक होते ही हैं।
      अब तो लिवइन से उत्पन्न हुई सन्तानों को भी क़ानूनी मान्यता व हक़ प्राप्त हैं।

Saturday, 25 March 2017

प्रेम जीवाश्म

कल तुम खिन्न थे- जब मैं थी अविचिलित,निष्क्रिय एवं अपरिवर्तित
मुझमें शने शने समाते गये प्रेम व अपनत्व से भरपूर कई उर्वर बीज 
क्यूंकि तुमने जिजीविषा से प्रहार कर उत्पन्न कर दीं असंख्य दरारें

आज तुम खिन्न हो- जब बीज प्रस्फुटन से निकले नवांकुर,कोपलें व पुष्प
चटकी व सुगन्धित चट्टान अपेक्षित नहीं की थी सम्भवतः तुमने
क्यूंकि भाती थी चिकनी,समतल शिला जिस पर नहीं टिकती थीं प्रेमिल बूंदे

कल भी तुम खिन्न रहोगे- जब तुम्हारी स्मृतियों,नेह व प्रेम के चिह्न अमिट रहेंगें
अथक प्रयासों के बाद भी नहीं मिटायें जा सकेंगें युग युगान्तर तक
क्यूंकि तुम्हारा प्रेम जीवाश्म सा संरक्षित हो गया है मुझमें अनन्त काल तक.....
   
                                       मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: जीवाश्म( fossil)
            बहुत प्राचीन काल के जीव-जंतुओं, वनस्पतियों आदि के वे अवशिष्ट रूप जो ज़मीन की खुदाई पर निकलते हैं; पुराजीव; चट्टान में भी छपे पाये जाते हैं ....

Monday, 20 March 2017

विश्व गौरैया दिवस

                     विश्व गौरैया दिवस
नानी की कहानी की चिरइया
आंगन में फुदकती चिरइया
दाना पानी गटकती चिरइया
चीं चीं करती प्यारी चिरइया

सुबह का मधुर अलार्म चिरइया
कलरव करते चिरोटा चिरइया
घोंसला बना अंडे सेती चिरइया
कृषक की सहयोगी मित्र चिरइया

बचपन की स्मृति तुम चिरइया
दिखती क्यों नही अब चिरइया
विकिरण से नष्ट होती चिरइया
भूतापवृद्धि से लुप्त होती चिरइया

पर्यावरण हेतु आवश्यक चिरइया
सरंक्षित कर लो साथी चिरइया
अन्यथा इतिहास होगी चिरइया
एवं चित्रों में ही देखेगी चिरइया

                मीनाक्षी मेहंदी

Sunday, 19 March 2017

वयःसंधि


वयःसंधि मानव में उस कालखंड को कहते हैं जिसमें बच्चा बढ़ कर जवान बन जाता है,इस अवस्था को किशोरावस्था भी कहा जाता है,समान्यतः ये 12 से 19 वर्ष की आयु तक रहती है।इस समय मानसिक शक्ति प्रबल होती है।शारीरिक और भावनात्मक बदलाव चरम पर होते हैं।इस आयु में बालक असाधारण कार्य करना चाहता है ,यदि वो सफल हो जाये तो उसी क्षेत्र में आगे बढ़कर उसे अपना जीवनोपर्जन का माध्यम भी बनाना चाहता है,यदि असफल हो जाये तो उसे अपना जीवन अर्थहीन लगने लगता है।
वयःसंधि बेहद खतरनाक होती है इस समय व्यक्ति बन भी सकता है और बिगड़ भी सकता है,इस समय उसे जो परिवेश मिलता है उसी पर उसका भविष्य निर्भर करता है।इस समय लिये गये निर्णय उसके पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं।
       इस वयःसंधि के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है किंतु एक वयःसंधि और होती है जिसके बारे में अधिक सुनने पढ़ने को नहीं मिलता वो है युवा से प्रौढ़ होने के मध्य की अवस्था जिसे अधेड़ावस्था भी कहते हैं।ये समान्यतः 45 से 60 के मध्य की आयु मानी जाती है।    इस काल में भी कई हार्मोनल बदलाव होते है साथ ही साथ उत्साह,रोमांच व शारीरिक क्षमता भी पहले जैसी नहीं रहतीं।रोग भी शरीर में बसने हेतु आतुर होने लगते हैं।पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे होने लगते हैं।उस समय अकेलेपन और नीरसता का वातावरण उत्पन्न होने लगता है,तब मानव के मन में पहले की दबी हुयी कुंठाएँ उभरने लगती हैं उसे लगता है उसने पूरा जीवन दूसरों की प्रसन्नता हेतु समर्पण कर दिया है अपने लिये तो जिया ही नहीं।यदि उसने अपना पूर्व का जीवनकाल अपनी इच्छानुसार जिया है तब तो वो सहज रूप से अपने इस जीवनकाल में भी नई ऊर्जा के साथ नये पथ (भौतिक,बौद्धिक या अध्यात्मिक) पर अग्रसर हो जाते हैं।किन्तु अधिकांश स्वयं को एकाकी मानने लगते हैं,उनमे नया कार्य करने की ना तो रूचि रहती है ना ही साहस ।इस समय उनके पास बुद्धिमानी और अनुभव की अदम्य ऊर्जा होती है तो भी वो निर्भीक हो निर्णय नहीं ले पाते और जैसा जीवन चल रहा है वैसा ही चलने देने को अपनी नियति मान लेते हैं ।
      इसका नतीजा ये होता है कि वो कटु और चिड़चिड़े होने लगते हैं जिसका प्रभाव उनके साथ साथ उनसे जुड़े सभी लोगों पर होने लगता है जिसके कारण कई बार उन्हें उपेक्षा का दंश भी झेलना पड़ता है।
      यदि हम जीवन की हर अवस्था को एक नवीन रूप माने तो प्रत्येक अवस्था का आनंद ले सकते हैं।
     कोई भी कार्य करने की यदि अदम्य इच्छा जोर मार रही हो तो उसे केवल आयु के विषय में सोच कर ना करना बुद्धिमानी नहीं है।अपने मन की सुनने के लिए और उसे कार्यन्वित करने के लिए आयु की आड़ नहीं लेनी चाहिये,आयु तो केवल एक संख्या है जो वर्ष दर वर्ष बढ़ती ही जायेगी.......
    आपके नूतन प्रयासों को आपके सिवा कोई रोक नहीं सकता,यदि आप जीवनपर्यंत एक ही परिपाटी पर चले हैं तब भी आप जब चाहे अपनी धारणा को बदल सकते हैं।आपमें अभी भी बहुत ऊर्जा है जिसके द्वारा आप जीवन का आनन्द ले सकते हैं ,ये जीवन एक बहुमूल्य उपहार है इसे ऐसे कार्य में लगाइये जो आप हमेशा से करना चाहते थे,साथ में अपने सामाजिक दायित्व भी निभाइये।
     आप पायेंगें कि आप पुनः तरोताज़ा हो गये हैं तथा
नीरस व उबाऊ जीवन काटने के स्थान पर जीवन का  रसास्वादन कर रहे हैं ।
                                    मीनाक्षी मेहंदी

Friday, 17 March 2017

ख़ुशी का पैमाना

                    " ख़ुशी का पैमाना"

   कल एक मूवी देखी,पांच दोस्तों की कहानी जिनके लिये ख़ुशी की परिभाषा अलग अलग थी।एक के लिए शक्ति,दूसरे के लिये प्रसिद्धि ,तीसरे के लिए धन ,चौथे के लिए सफलता और पाँचवे के लिए दुःख का अभाव ही ख़ुशी का पैमाना था।वो अपनी अपनी खुशियों को पाने के लिए निकल पड़ते हैं ,5 साल बाद फिर मिलने के लिए और अपनी अपनी मंजिल को पाने के बाद जब वो पुनः मिलते हैं तो पाते है कि कोई भी खुश नहीं है क्योंकि अपना लक्ष्य पाने हेतु उन्होंने जो कार्य किये थे वो उनकी अंतरात्मा को कचोट रहे थे।
    दुःख का अभाव भी ख़ुशी का पैमाना नहीं है।जीवन में ख़ुशी पाने की लालसा में शायद व्यक्ति ख़ुशी से और भी दूर होता चला जाता है।ख़ुशी तो अंतरनिहित होती है जो परिस्थितिजन्य होती है।कभी कभी समान परिस्थिति हमे सुख देती है और मन के दुःखी होने पर पर वही हमें दुःखद प्रतीत होती है।
     कुछ लोगों का मानना है कि ऊपरवाला कभी किसी को पूर्ण सुख नहीं देता कुछ ना कुछ अभाव जीवन में अवश्य होता है।मनुष्य की फितरत है कि वो उस कमी को सोच सोच कर ही दुःख प्रतीत करता रहता है जो मिल गया उसे नहीं देखता।
     लेकिन परमपिता परमात्मा हमें बहुत दुखी भी नहीं देख सकता है जब भी हम अत्यधिक कष्ट या दुःख में होते हैं तो वह हमारे कष्ट हरने के लिये किसी ना किसी रूप में हमारी सहायता के लिए प्रयास करता है और किसी को माध्यम बनाता है सहयोग के लिये,अब ये हमारी योग्यता पर निर्भर होता है कि हम उस माध्यम को पहचान अथवा समझ पाते हैं या नहीं।
      पूर्ण सुख या पूर्ण दुःख जैसी कोई अवधारणा नहीं होती एक के होने में ही दूसरे का होना पाया जाता है, सुख का महत्व तभी ज्ञात होता है जब दुःख को अनुभव किया हो ,बिना दुःख की अनुभूति के सुख की अनुभूति भी नहीं होती।
    अतः ख़ुशी का कोई निश्चित पैमाना नहीं है,ख़ुशी को सब अपनी अपनी मनोस्थिति अनुसार प्रतीत करते हैं।कहते हैं ना कोई खुश हुआ गुब्बारे बेच कर और कोई खुश हुआ गुब्बारे खरीद कर।
                                   मीनाक्षी मेहंदी
    

Monday, 13 March 2017

होलिका पर्व की मंगल कामनाएं

होली का त्यौहार प्रह्लाद और होलिका की कथा से भी जुडा हुआ है। विष्णु पुराणकी एक कथा के अनुसार प्रह्लाद के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने तपस्या कर देवताओं से यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह न तो पृथ्वी पर मरेगा न आकाश में, न दिन में मरेगा न रात में, न घर में मरेगा न बाहर, न अस्त्र से मरेगा न शस्त्र से, न मानव से मारेगा न पशु से। इस वरदान को प्राप्त करने के बाद वह स्वयं को अमर समझ कर नास्तिक और निरंकुश हो गया। वह चाहता था कि उनका पुत्र भगवान नारायण की आराधना छोड़ दे, परन्तु प्रह्लाद इस बात के लिये तैयार नहीं था। हिरण्यकश्यपु ने उसे बहुत सी प्राणांतक यातनाएँ दीं लेकिन वह हर बार बच निकला। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। अतः उसने होलिका को आदेश दिया के वह प्रह्लाद को लेकर आग में प्रवेश कर जाए जिससे प्रह्लाद जलकर मर जाए। परन्तु होलिका का यह वरदान उस समय समाप्त हो गया जब उसने भगवान भक्त प्रह्लाद का वध करने का प्रयत्न किया। होलिका अग्नि में जल गई परन्तु नारायण की कृपा से प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हुआ। इस घटना की याद में लोग होलिका जलाते हैं और उसके अंत की खुशी में होली का पर्व मनाते हैं।

होलिका दहन पर सभी अपनी अपनी बुराइयों का दहन करें।

Saturday, 11 March 2017

होली आयी

होली के सतरंगों के साथ साथ बन जाता है इन्द्रधनुष बचपन की हुड़दंगी होली का।कई कई दिन पहले से बच्चों की टोली चंदा इकठ्ठा करती थी,होलिका दहन के लिये।पापा लाते थे सुगंधित गुलाल,पक्के रंग और टेसू के फूल।पूरी कॉलोनी पर छा जाता था होली का खुमार----
      सभी महिलाएं मिलजुल कर बनाती थीं,गुझिये,समोसे,ख़स्ता,मठरी,लड्डू,चिप्स,आलू के पापड़ और बेसन के सेव।
       होलिका दहन के पूजन पर इकठ्ठा हो जाता था पूरा परिसर और होलिका के चारों और घूमते हुये भूने जाते थे गन्ने व होले(हरे चने) या गेहूँ की बालियाँ।
      रंग के दिन बड़े पीते थे भांग मिली ठन्डाई और बच्चे खाते ढेर सारी गुझिया व मिठाई। रात भर भिगोये टेसू की सुगन्धित जलधार से पिचकारी भर जब किसी को भिगोया जाता था तो तन के साथ उसका मन भी प्रेम से भीग कर अहलादित हो जाता था।
    वो अहसास आज भी तरबतर करता है मधुर स्मृतियों से झाँककर।
     पूरी कॉलोनी त्यौहारों विशेषकर होली पर एक वृहद परिवार बन जाती थी,गजब का खुमार छा जाता था।
     होली के बचपन के साथी बेहद याद आते हैं,जो गुम हो गये कहीं वक़्त की धारा में, कुछ मिल गये हैं सोशल मीडिया पर।
     अब भी मनाते हैं होली नये मित्रों व नये उल्लास के संग, संग ही लेकर चलते हैं परम्पराएं तथा पकवान भी।
    अब तो वास्तविक संसार के साथ साथ मचती है धूम आभासी संसार में भी जाने अनजाने मित्रों के नये नये विचारों की।
     वाह, क्या पीढ़ी है हमारी जिसने देखें हैं नवीन व पुरातन सभी रंग होली के।
                                 मीनाक्षी मेहंदी

Friday, 10 March 2017

क्या निशाकालीन विवाह उचित नहीं हैं....???

मुझसे किसी ने जिज्ञासा की कि हम अपने जीवन काल में सभी हवन निराहार रह कर एवं दिन में करते हैं तो पाणिग्रहण का हवन (फेरों के समय)जो दो व्यक्तियों के नए जीवन की शुरुआत है उसे रात्रि में और खाना खाकर क्यूँ करते हैं,इसका कोई कारण है या गलत परंपरा...
मैंने उन्हें कहा कि ब्रह्म महूर्त में फेरे लिये जाते हैं तो उनका तर्क था तब तो हम जो विवाह की शुभ तिथि निकलवाते हैं उस दिन विवाह ना होकर अगली तिथि पर हो रहा है,
विवाह दिन में होने चाहिये रात्रि विवाह का चलन ग़लत है
यदि किसी पर उपयुक्त तर्क हो तो समाधान दें।क्या वैदिक काल से ही विवाह रात्रि में होते थे या समय के साथ विसंगति आ गयी है।
 महात्माओं से परामर्श करके पता चला है,कि पहले विवाह दिन में ही होते थे।दूल्हा दुल्हन विवाह-यज्ञ पूर्ण होने से पहले निराहार रहते थे।पर अब समय के साथ विसंगति आ गयी है।

तात्पर्य यही है कि निशाकालीन विवाह उचित नहीं हैं।

Wednesday, 8 March 2017

महिला दिवस की शुभकामनाएं


"मैं नारी हूँ"
मैं स्नेह हूँ,ममता हूँ,आदर भी हूँ
मैं केवल प्रेम ही नहीं........
मैं माँ हूँ,भगिनी हूँ,सुता भी हूँ
मैं केवल भार्या ही नहीं........
मैं संवेदना हूँ,सहनशीलता हूँ,अनुराग भी हूँ
मैं केवल अभिसार ही नहीं........
मैं सखी हूँ,प्रेयसी हूँ,साथी भी हूँ
मैं केवल दासी ही नहीं........
मैं मनुष्य हूँ,चेतना हूँ,जागरण भी हूँ
मैं केवल भोग्या ही नहीं........
मैं आत्मा हूँ,ह्रदय हूँ,मस्तिष्क भी हूँ
मैं केवल देह ही नहीं........
मैं वसुधा हूँ,सृष्टि हूँ,ब्रह्मांड भी हूँ
मैं केवल सृजन ही नहीं.......
मैं लक्ष्मी हूँ,सरस्वती हूँ,पार्वती भी हूँ
मैं केवल सती ही नहीं..........
                     मीनाक्षी मेहंदी

Tuesday, 7 March 2017

सलोनी की कहानी(7)- सलोनी की होली ( दृश्य -2)

विनीत बिना ताला लगाये बड़बड़ाते हुए चला जाता है,सलोनी घर के कार्य निबटाने लगती है।तभी कॉलोनी की महिलायों की टोली आ जाती है,सबके साथ सलोनी भी बेमन से हुड़दंग में शामिल हो जाती है।हिंदी फिल्मी गाने बज रहे है बच्चे बड़े सब रंगे हुए है,बाल्टी भर भर पानी बरसाया जा रहा है,सब तरफ उमंग व तरंग का माहौल।सलोनी भी सराबोर होने लगी रंग भरी मस्तियों में। कुछ युवक सलोनी पर रंगीन पानी की बाल्टी उड़ेलने लगते हैं वो भागती है....तभी पड़ोसी सज्जन उसकी कलाई पकड़ लेते हैं सलोनी कसमसा कर कलाई छुड़ाने की कोशिश करती है पर नाकामयाब रहती है।ढेरों पानी दोनों पर उंडेल दिया जाता है।सलोनी को यकायक सब कुछ भाने लगता है उसे लगता है कायनात थम जाये और वो यूँ ही रंगीन पानी में सराबोर होती रहे।प्रफुल्लित सलोनी होली का भरपूर आनंद ले घर आती है।पूरे साल अगली होली की प्रतीक्षा करते हुये अपने सभी कार्य करीने से करती है ,बच्चों का प्रेम व ममत्व से लालन पालन करती है ,विनीत से भी कोई शिकायत नहीं करती।एक आनन्दित नारी सभी परिजनों के संग उत्फुल्लता भरे पल व्यतीत करती है ढेरों पकवान बनाती और मनुहार कर कर खिलाती है.....

टिप्पणी: सामाजिक दृष्टिकोण से सलोनी एक बुरी नारी है जो अपने पति की उपेक्षा के पश्चात भी खुश है तथा परपुरुष स्पर्श को भी उसने झिड़का नहीं....

सलोनी की कहानी(6)- सलोनी की होली (दृश्य-1)

"सलोनी की होली"
सलोनी: सुनो,इस होली भी मुझे रंग नहीं लगाओगे।
विनीत: क्या रंग लगाना पहले रंगों फिर घण्टों छुड़ाते रहो मुझसे नहीं होती ये बेवकूफ़ी।अब जल्दी से होली में पहनने के कपड़े दो।
सलोनी:पहले तो आपको होली खेलना पसंद नही था किंतु अब तो आप होली खेलते हो तो मेरे साथ भी...
विनीत:मेरा मन नहीं होता 
सलोनी:क्यों नहीं होता इतने साल हो गये शादी को आपका मन क्यों नहीं होता मुझसे होली खेलने का।
विनीत:नहीं होता तो नहीं होता,तुम तो जानती हो मेरा कुछ मन नहीं होता।
सलोनी:बच्चों को संग ले जाओ और बाहर से ताला लगा दो मुझे किसी के साथ होली नहीं खेलनी।

विनीत:कॉलोनी की महिलायों के साथ खेल लेना बुलाने आयेंगी तो....
सलोनी:क्या फायदा पहले रंग लगवाओ फिर छुड़ाओ मेरी त्वचा भी ख़राब हो जाती है।
सुनो.... जब मैं मर जाऊंगी तो मेरी खूब सारी मांग भर देना नाक से लेकर सर तक वही हमारी सच्ची होली होगी।
विनीत:बकबक भरी डायलॉग बाजी बन्द करो ,जा रहा हूँ देर हो गयी तो भाभियों को मुझसे पहले कोई और रंग लगा देगा।
विनीत बच्चों के साथ बाहर से तालालगाकर चला जाता है।
सलोनी पूरे वर्ष अवसादग्रस्त रहती है चिड़चिड़ी बात बात पर ताने सुनाने वाली,अनमने ढंग से सभी काम करती बच्चों को हरदम फटकारती नारी।प्रतीक्षा करती है शायद अगली होली पर विनीत उसे रंग लगायेगा और वो होली कभी नहीं आती।

टिप्पणी: सामाजिक दृष्टिकोण से सलोनी एक अच्छी नारी है जो अपने पति का प्रेम पाना चाहती है,जिसकी सभी खुशियां अपने पति से जुड़ी हैं

Monday, 6 March 2017

होली तो....हो...ली

होली तो....हो...ली
सबसे पहला विज्ञान प्रयोग:एक बीकर पानी में चीनी को विलय करते है , संतृप्त बिंदु पर और चीनी नही घुलती......
मन में आशाएँ विलय करते करते लगता है कोई संतृप्त बिंदु आ गया है,
होली के लिए ना कोई उमंग,उत्साह,ना कोई नैराश्य,ना निराशा....
हर वर्ष होली बीतते ही दूसरी होली की प्रतीक्षा शुरू हो जाती थी.....
इस वर्ष होली को लेकर कोई चाव ही नहीं है मन में......
पकवान भी बन रहे हैं ,शुभ होली भी बोला जायेगा,यदि कोई रंग गुलाल लगाएगा तो सहर्ष उसे रंगा भी जायेगा किन्तु ये उदासीनता क्यों है?
ये महानता के लक्षण हैं या वैराग्य के .....
मित्रों मार्गदर्शन करें.....

Sunday, 5 March 2017

वेदना से मुक्ति

वेदना से भरे इस जीवन में
नित्य नये अवसाद मिलते हैं
दुःख भरी कंटीली डगर पर
चलते हुए पाँव छलनी होते हैं

वर्जनाओं की सर्दीली हवा से
अरमान सभी ठण्डे होते हैं
इच्छा है मुक्त स्वछंद जीवन की
दायित्व के पत्थर ढोने होते हैं

चाहा कि छोड़ दूँ ये राह मैं
दूसरी राह पर चल दूँ मैं
असंख्य प्रश्न उठ खड़े होते हैं
विचारों का मंथन करते हैं

क्या अन्य मार्ग सुगम सरल होगा
क्या वहां स्वतंत्र जीवन होगा
वहाँ ना होंगी बंधन वर्जनाएं
वहां ना होंगी यातनाएं???

यदि उस मार्ग पर तन के साथ
अंतर्मन भी घायल हो गया तो
यहाँ कई बाधाएं पार हो चुकी हैं
नई बाधाएं सहने की शक्ति शेष है?

नही-नहीं इसी मार्ग पर चल
पाऊँगी नवज्योति पूर्ण मंजिल
क्या हुआ यदि राह है सघन
इंसान चाहे तो झुका दे गगन

करने हों चाहे लाखों संशोधन
भेंट करना हो अपना सर्वस्व
प्राप्त करके ही रहूँगी वो ढंग
जिससे अस्तित्व में हो स्पंदन।

                             मीनाक्षी मेहंदी

Saturday, 4 March 2017

" होली की ठिठोली"

" होली की ठिठोली"
सुरमई सुरमई मौसम हुआ,
बजने लगे नये राग
रंग गुलाल उड़ने लगे,
भीग भीग बहकाने लगा फ़ाग

मन मयूर नाचने लगा,
थिरकने लगे मद में पैर,
एक पल में ही हो गयी ,
सभी नक्षत्रों तक की सैर,

थम जाये ये समय,
सारी क़ायनात जाये थम,
बीत जाये यूँ ही सारी उमर,
काश यूँ ही संग खड़े रहें हम,

जादू छा गया तुम्हारे स्पर्श का,
 मेरे प्रिय,मनबसिया,
होली के रंग फ़ीके हुए,
चढ़ा तुम्हारा रंग रंगरसिया,

अपने रूपांतरण का ना दूँगी,
तुम्हें कोई दोष,तंज ना तानाबोली,
तुमने तो मेरी कलाई थाम,
की थी मात्र'होली की ठिठोली'
     
                     मीनाक्षी मेहंदी

Friday, 3 March 2017

बेरोजगार

समाचार पत्रों के विज्ञापन निहारता
             फटेहाल चलता चप्पलें फटकारता
घर में खामोश बना रहता
             कठिनाई पूर्वक भोजन निगलता
नींद में भी मानो जागता
             कब तक रहेगा रोज़गार तलाशता
बचपन बीता खेलता कूदता
              बड़ा हुआ डिगरियां कमाता
निषिद्ध कर्म किया ना जाता
              व्यापार हेतु धन ना भ्राता
बोझ समझने लगे हैं पिता
               कहाँ गया पूर्व स्नेह माता
भेद ये समझ ना आता
                कहीं पर चैन ना पाता
ऐसे ही एक बेरोजगार भटकता
               जीवन दौड़ जीत नहीं सकता।

                          मीनाक्षी मेहंदी

Thursday, 2 March 2017

हर सवाल का ज़बाब नहीं मिल सकता....



रात के गहन सन्नाटे में
         विशाल आंगन में बिखरी ,
चाँदनी करती रही सवाल
         क्या आज मैं पुनः जागूंगी,
कहाँ खो गयी है निंदिया
          कहाँ विलुप्त तेरे स्वप्न,
किसकी याद में हरदम
          खोया रहता तेरा मन,
कोई अनछुआ स्पर्श
           कोई अनकहा वाक्य,
कोई अनघटी घटना
           क्यों करती व्याकुल तुझे,
अपने से है परे
           अपनों से भी विपरीत,
यथार्थ से कोसों दूर
            कहाँ पहुँची तेरी आकांक्षाएं,
जागी है या सोई है
             रहती यूँ ही खोई है,
क्या कभी तू रोई है
              अपनी बेबसी पे छुप कर,
क्या कंपकपाते अधरों से 
              निकली है कोई क्रंदित आह,
किसकी करते हैं प्रतीक्षा
              तेरे नैन अनन्त काल से,
सुन कर चाँदनी की
              ये मधु भरी बतियाँ,
मैं थोड़ा सा शरमाई
              कुछ कहने से सकुचाई,
लगता है आज मुक्ति नहीं
              इससे बच नहीं पाऊँगी,
देने ही होंगें इसके
               शरारती प्रश्नों के उत्तर,
नींद ,स्वप्न,यादें,मन
                सब रख दिया कहीं गिरवी,
रहना चाहती हूँ कुछ समय
                 मैं नितांत अकेले स्वछंद,
जो स्पर्श,वाक्य,घटना
                 कर जाती उत्तेजित मुझे,
वो अन्य कुछ नहीं हैं
                  हैं स्वयं मेरी ही परिकल्पनाएं,
मेरी  प्यारी प्यारी चाँदनी
                  सुना मेरा हाल तुमने,
अब समस्या हल कर दो
                   मेरे एक प्रश्न का उत्तर दे दो,
आख़िर क्यों अंजाने लोग
                   प्यारे बन जाते हैं,              
मेरी अपनी कल्पनाओं पर
                    अपना अधिकार किये जाते हैं
कल तक जो बेगाने थे
                    आज सर्वस्य क्यों हो जाते हैं
जिनसे कोई पहचान ना थी
                    वो युग युग के साथी नज़र आते हैं ,
ऐसा आख़िर क्यों 
                   किसलिये होता है ,
 मैं मेहंदी ही ऐसी 
                  बावरी बनी रहती हूं ,
 या हर कोई अपने प्रिय की,
                 याद में रोता रहता है।  
                         मीनाक्षी मेहंदी           

Wednesday, 1 March 2017

मेरी पीड़ा

     
                           "मेरी पीड़ा"
उत्पन्न होती हैं वातावरण में कुछ तरंगें
मेरी मानसिक तरंगों के साथ कर अनुनाद

वो कुछ ऐसा प्रभाव छोड़ जाती हैं
कि मेरा मन आन्दोलित हो उठता है

करने लगता है एक अनचाहा विद्रोह
सदियों से चली आ रही परम्पराओं का

मस्तिष्क भी हृदय का साथ देता है
ठुकराना चाहता है प्राचीन मान्यतायों को

त्यागना चाहता है समस्त रीतिरिवाजों को
पर साथ ही कुछ घटित हो अवचेतन में

आभासित कराता है कि भला बुरा जो भी है
जैसा भी है ,सब कुछ चलने दो यूं  ही ऐसे ही

अपने विचारों,सिद्धान्तों का जब कभी भी
परीक्षण करती हूँ यथार्थ की कसौटी पर

तब प्रतीत होता है कि मैं ही सर्वदा सही हूं
शतप्रतिशत खरी व शुद्धतम गणनमान हूँ

पर ना जाने कौन सा भय है जो
अवचेतन का बोध सत्य मानती हूँ

हालांकि इस प्रयास में  सदैव 
स्वयं अपने ही द्वारा उत्पादित

परिकल्पनाओं के बोझ तले कहारती हूँ
घनघोर पीड़ा से बैचेन हो जाती हूँ ......

                                 मीनाक्षी मेहंदी


तुमसे मिल कर

                     तुमसे मिल कर
सोचा मैंने  प्रति क्षण
टटोला अपना अंतर
कौन सी बात तुम्हारी 
मुझको इतना मोह गयी
साथ छोड़ा नींद ने
केवल ख़्याल शेष रहे
जागी रही सोई नहीं
तुम्हारी याद में डूब गई
कहाँ गई मेरी कल्पनायें
क्या हुईं मेरी इच्छाएं
 छाया कैसा सरूर
अपनी सुध बुध खो गयी
बिसार गई अपने आदर्श
अनदेखे कर दिये सिद्धान्त
क्या हुआ तुमसे मिल कर
अपना जीवन दर्शन भूल गयी।
   
                  मीनाक्षी मेहंदी