Friday, 6 January 2017

शैलबाला


"शैलबाला"

  हे सागर लहरों !

कहाँ लुप्त हो गयी वो शैलबाला
बैठी रहती थी लिये रूप निराला

ज्ञात नहीं होता था प्रतिमा जैसी है चट्टान
या लड़की ही बन गयी है एक चट्टान

खोई खोई लगती थी जगत से निर्लप्त
तुम्हें देख नेत्रों में होते थे दीप प्रज्वलित

पूछा क्या करती हो निर्जन में हे रमणी?
दिखाये कर में दबे चंद शंख,सीप व मणि

नहीं सौंप पाती इन्हें कुछ भी, हैं मेरे कर रीते
किन्तु ये बिन मांगे दें देतीं मुझे जीवंत सौगातें

जी चाहे इन लहरों में सदा के लिये समा जाऊँ
पुनश्चहः जग में चाहे लौट कर ना आ पाऊँ

बतलाओ तो कहाँ चली गयी वो शैल बाला
जिसका पर्याय लगती थी ये पाषाण शिला

कहीं सच में हुई तो नहीं समुद्र में समाहित
उमड़ते घुमड़ते उफनते वेग से हो विचलित

या तुमने किया हो ज्वार युक्त जल में विलुप्त
डूब गयी हो अनजानी प्यास को करने तृप्त

खारे सागर सुलझाओ मेरी ये उत्सुक जिज्ञासा
निगल लिया उसे क्या बुझाने अपनी पिपासा

हे सागर लहरों! मन में उठती है चाह यही
पुनः दिखे वो रमणी विचरती हुयी यहीं

उन्मुक्त हो तुम्हारे संग खेलती तथा तैरती हुई
ना की किसी चट्टान से एकरूप होती हुई

हे सागर लहरों! करना कुछ ऐसी चपलता
अब मिले तो भिगो उसे दे देना अपनी चंचलता।
             
                 मीनाक्षी मेहंदी

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