"मिलूंगा तो हूँ ही मैं तुमसे"
मिलूंगा तो हूँ ही मैं तुमसे
इस जन्म नही तो अगली बार
नही जानता कब किस रूप में
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे
ग्रीष्म की तप्त ऋतु में
प्रकट हूंगा जल स्रोत बन
तुम्हारी तृषा समेटने को
या शीतल छाया बन छाऊँगा
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे
क्या पता बन जाऊँ कोई वृक्ष
तुम्हारी पसन्द अमलतास सा
या निहारो दृष्टि भर वो गुलाब
तुम्हारे आंगन में बन जाऊंगा
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे
कभी बिन बुलाए ही बनूँगा गुनगुनी धूप सर्द मौसम की
गर्माहट भरा विश्राम देकर
झमेले तुम्हारे सभी भूलाऊंगा
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे
ओढ़ा दूँगा मेघों का आवरण
बदली बन तुम्हें भिगो जाऊंगा
खिल जाऊंगा इंद्रधनुष बनके
बिखर कर भी रंग दिखाऊंगा
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे
यदि हो प्रकृति की अनुकम्पा
तो सहचर बन मिल जाऊंगा
अर्पण और समर्पण से प्रीत अपनी सदियों तक निभाऊंगा
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे
वादा रहा मिलूंगा अवश्य
कुछ पल या सदा के लिये
मूर्त या अमूर्त किसी भी
रूप में तुम्हारे पास आऊंगा
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे...
टिप्पणी: मेरी एक रचना का male version मेरे एक मित्र द्वारा....☺☺
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