कई बार मन और मस्तिष्क में जंग छिड़ जाती है,मन की बात सुनने का अर्थ होता है दुनियादारी को त्याग वो करना जो हम हमेशा से करना चाहते हैं किंतु हमारा मस्तिष्क हमें सचेत करता है कि मन की सुनने में क्या क्या हानि हो सकती है।हमारा मस्तिष्क तर्क प्रधान होता है जो समय के संग संग अनुभवों से सीखता है और उन अनुभवों के आधार पर ही हमें तर्क द्वारा किसी कार्य को करने का क्या परिणाम हो सकता है ये समझाता है। वहीँ मन उड़ान भरना चाहता है नित नई उमंगों से सराबोर होना चाहता है वो निर्धारित राहों से हट कर कुछ अलग रोमांचक करने के लिए तत्पर रहता है।इसी से मनमस्तिष्क में शुरू हो जाती है कशमकश।व्यक्ति दुविधा में रहता है क्या करूँ क्या नहीं ।मन अपनी बात मनवाना चाहता है मस्तिष्क अपनी। मन तो बावरा होता है पता नहीं क्या क्या चाहता है मस्तिष्क उसकी लगाम खींच कर उसे नियंत्रित करता है। किंतु हमेशा मस्तिष्क का कहा मानते मानते जीवन में नीरसता आ जाती है इस एकरसता की नीरसता को भंग करने के लिए व्यक्ति कभी कभी मन की करना चाहता है पर परिणाम के विषय में सोचकर संशय में पड़ जाता है।इस संशय को किस भांति सुलझाया जाये ये अहम प्रश्न है।यहाँ विवेक काम आता है ...स्वविवेक से निर्णय लेकर अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुनते हुए जो निर्णय लिया जाता है वो कभी गलत नहीं होता।
विवेक का प्रयोग करना भी एक कला है और ये कला विकसित होती है स्वाध्याय और ध्यान से।जब आप ध्यान लगाते हैं तो स्वयं के भीतर झांक पाते हैं व अपनी अंतरआत्मा की पुकार सुनने की कला विकसित कर पाते हैं।जब कोई अपने विवेक का प्रयोग करना सीख जाता है तो उसकी सभी उलझनें सुलझ जाती हैं व वो मन मस्तिष्क की कशमकश से मुक्ति पा जाता है।अतः विवेक का प्रयोग करना सीखें और संतुलित जीवन बिताने के पथ पर अग्रसर हो जायें।
प्रतिदिन थोड़ा सा समय स्वयं को देकर योग और ध्यान की आदत उत्पन्न करके अपने विवेक को जाग्रत करें एवं जीवन को सुगम और कल्याणकारी बनायें।