Monday, 20 February 2017

राजनीति


ये राजनीति की कुर्सी बड़ी अलबेली है
अंदर है मैल बाहर से चटकीली है
कई दलों की खिचड़ी है कभी
तो कभी अकेले ही खिंच चली है
इस पर विराजमान खादी धारियों की
करतूतें भी अजब रँगीली हैं
घोटालों में व्यस्त हैं सब जन
पर कुछ के विरुद्ध डायरी लिखेली है
प्रजा के सेवक करें हैं मिलजुल
या एक दूजे को पटक कर शासन
सोच समझ कर चुनना मित्रों
इनकी नस नस होती जहरीली है
पल में तोला पल में माशा
बदलते हैं बयान हर पल में
पोल खुलने पर हंस कर बताते
जनकल्याण हेतु दलाली ले ली है
नित नवीन समीकरण बनते हैं
बन बन कर कभी बिगड़ते हैं
कार्यान्वन होता नहीं किसी का
इसकी माया बड़ी छैल छबीली है
देश है अपना जनता अपनी
अपनी है सब सम्पत्ति यहाँ की
अपना समझ अपनी सुविधानुसार
सबने अपनी तिजोरी भर ली है
इसकी मस्ती को देख देख
नशा कहते हैं विद्वान इसको
जो बैठा झूम गया मद में
ऐसी ये ठगिनी नशीली है
वचन हैं ये मेहंदी के
सुनो बुरा भला कहने वालों
व्यर्थ विवाद में डालते इनको
देश सम्भालना क्या हंसी ठिठोली है।

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