(वो नायाब शॉल)
आज भी संजोये हूँ स्मृतियों में वो पल निराला
धूप में बैठी देख रही थी शॉल काला काला
फेरीवाला अपनी कारीगरी दिखा रहा था
किंतु मुझे कोई भी शॉल ना भा रहा था
बसी है तुम्हारी वो छवि अब भी नैनों के अंदर
एक शॉल ओढ़ बोले लगेगा तुमपर अति सुन्दर
तुम्हें देखकर उस समय तो मैं मात्र हंस दी थी
तुम्हारे जाने के बाद उसी शाल के लिए अड़ गयी थी
फेरीवाला चला गया करके अपना मनचाहा हिसाब
अपने अंक में समेट लिया मैंने वो शॉल नायाब
जब भी तुम्हारा वियोग मचाता है खलबली
वो शॉल ओढ़ कर पाती तुम्हारा स्पर्श मख़मली
इस पर कढ़े बूटों में तुम्हारी दाढ़ी की चुभन सा आवेग
इसकी आंच में बसा तुम्हारी
सांसो की गर्मी सा संवेग
जब जी चाहता लपेट इसे आ जाती हूँ तुम्हारे आलिंगन में
और सराबोर हो जाती हूँ तुम्हारी चिरपरिचित गंध में।
मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: सर्दी की आमद के साथ निकल आती हैं पिटारे में छिपी यादें विभिन्न विभिन्न रूपों में......
वाह, बहुत खूब।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteवाह जवाब नहीं इस पंक्ति का लाजवाब
ReplyDeleteइसकी आंच में बसा तुम्हारी
सांसो की गर्मी सा संवेग
बहुत बहुत धन्यवाद श्रीमान
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