"हम दोनों"
हम दोनों नदी के दो तट,
दूर दूर पर साथ साथ,
कई योजन तक हमारा विस्तार,
पर नहीं मिलते क्षितिज जैसे भी,
तुम बता रहे होते बाज़ार भाव,
मेरे कानों में कोयल कूकती,
तुम उलझते यथार्थ के झंझावत में,
मैं कल्पना में फूल खिलाती,
तुम्हारे लिए जीवन तनाव,कठिनाइयां,विभिन्न सन्त्रास,
मेरे लिये जीवन उत्सव,आनन्द,निरंतर मधुमास,
हम दोनों दो ध्रुव उत्तर दक्षिण चुम्बक के,
हमारे विरोधाभास ही केंद्रबिंदु आकर्षण के,
तुम केवल मुझे चाहते हो?
मैं जानती हूँ-पर मानती नहीं,
मैं केवल तुम्हें चाहती हूँ?
तुम नहीं जानते-पर मानते हो,
और ये जानना,मानना ही बन जाता है अटूट विश्वास,
जिसमें जुड़ कर प्रेम व समर्पण,
बना देता है हमारे मध्य सेतु,
चहलकदमी करने लगती हैं इस पर,
मेरे तुम्हारे रिश्तों की पदचाप,
और बहने लगती है "हमारे रिश्तों" की नदी,
कलकल हमें जोड़ती हुई।
मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: विपरीत ध्रुवों में आकर्षण होता है ये सही है किंतु वो आकर्षण तभी कायम रह पाता है जब उसमें आकर्षण के साथ शामिल हो जाते हैं रिश्ते नाते जिम्मेदारियां और साथ साथ बिताये हँसी ख़ुशी और संग संग झेले गम के पल.....
सुंदर रचना..
ReplyDeleteएक नई दिशा !
धन्यवाद
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