Wednesday, 30 November 2016

अनमोल आँसू

"अनमोल आँसू"
झर झर बहे आँसू अनमोल
इनके बिना जीवन बेमोल
झर झर बहे आँसू अनमोल
विरह की वेदना से अनुतप्त
भावों के चंदन से सुरभित
झर झर बहे आँसू अनमोल
युगों से संचित था ज्वार
पलक बंधन टूट बहा क्षार
झर झर बहे आँसू अनमोल
घिर आई दुःख की बदली
बिजली बन पीड़ा मचली
झर झर बहे आँसू अनमोल
नहीं होते ये कमजोर निशानी
व्यक्त करते प्रीत की कहानी
झर झर बहे आँसू अनमोल
मन की सब बातें कहें नीर
बिन बोले उगलें दबी पीर
झर झर बहे आँसू अनमोल
बीते पल जब याद आते हैं
मन को ढाँढस ये बंधाते हैं
झर झर बहे आँसू अनमोल
आज भी सूखी नहीं है नमी
आँखों की कोर पर है जमी
झर झर बहे आँसू अनमोल
इनके बिना जीवन बेमोल
झर झर बहे आँसू अनमोल

                 मीनाक्षी मेंहदी
टिप्पणी: आँसू बहाना भी कभी कभी आवश्यक हो जाता है,सारा गुबार बह कर मन हल्का हो जाता है और यदि उन आँसुओं को कोई समझ जाये तो मन में नई उमंग भी भर जाती है......

Tuesday, 29 November 2016

तपता हुआ लोहा

मैं आग में तपता हुआ लोहा हूँ
अब है तेरे अख्तियार में
चाहे बना दे पात्र कोई
या ढाल दे हथियार में।


मैं भी आग में तपता लोहा हूँ,
तेरे पारंगत हस्त की चेष्टा से,
किसी आकर्षक आकार में ,
तेरे लिए ढल जाना चाहता हूँ।

Monday, 28 November 2016

मरीचिका


मरीचिका

जीवन में कभी कहीं भी
मिल पाता है क्या मनचाहा
दूसरों की समर्द्धी देख
मन सदा ही ललचाया
जो नहीं प्राप्त सहज ही
मानव को वो ही भाया
मरिचिका में भागे हरदम
करता अपना वक्त जाया
स्वनिहित कस्तूरी वन वन ढूँढे
कैसी है प्रभु की माया
व्याकुल रहता ये मन
रहस्य समझ ना आया
राम जैसा साथी मिला है
पर मन राधा सा क्यों पाया।

              मीनाक्षी मेंहदी

टिप्पणी: रीति रिवाजों से होता अगर कोई अपना,तो आज श्याम राधा का नहीं रुक्मणी का होता।

Sunday, 27 November 2016

मैं-प्रस्तर शिला

*मैं  - प्रस्तर शिला

मैं तट पर स्थित प्रस्तर शिला हूँ
तुम कोलाहल मचाती सागर लहर हो
तुम्हारे थपेड़ों से टकरा टकरा कर भी
मैं अविचल निष्क्रिय निस्पृन्द हूँ

तुम्हारे खारे पानी के स्पर्श से पड़ जाते हैं निशान
और भीगता रहता है थोड़ा थोड़ा अंतर मेरा

तुम्हारे निरन्तर प्रहारों से चटकती रहती हूँ
और बदलता रहता है थोड़ा थोड़ा रूप मेरा

तुम्हारी वेगमयी उमड़ती चोटों से होती चूर चूर
और बन बन रेत मिटता रहता है अस्तित्व मेरा

अभ्यस्त हो गयी हूँ तुम्हारे वेग,प्रहार व खारेपन की
अतिप्रिय लगने लगा है कोलाहल भरा ज्वार

किन्तु मत आने दिया करो कभी भी निर्मम भाटा
जिसमें मचता है शोर तुम्हारी असहनीय ख़ामोशी का

क्यूंकि तब व्यथित,व्याकुल हो जाती हूँ मैं
और निकालने लगती हूँ तुम्हारे मौन के कई अर्थ अनर्थ।

                मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: परिवर्तित हो जाता है रूप, एक पत्थर मंदिर में पूजनीय हो जाता है, राम के स्पर्श से पत्थर पावन हो जाता है,निरन्तर प्रयास से दशरथ मांझी जैसे पहाड़ तोड़ देते है तो एक शिला भी धीरे धीरे रेत बन सकती है यदि लहरें पूरी जिजीविषा से निरंतर प्रहार करती रहें तो......

Saturday, 26 November 2016

विलम्बित न्याय

फुटपाथ पर रक्त रह गया चित्कारता
बेघर बेसहारा जन्नतनशीं हो गए
जो अत्यधिक परिपूर्ण थे अर्थ से
वो ही इस युग में समर्थ हो गए
इंसाफ के मंदिर से थीं चंद उम्मीदें
विलंबित न्याय से निर्णय बेमानी हो गए
देर आये दुरुस्त आये सोचती रही जनता
उनको बाइज़्ज़त देख सब हैरान हो गए
कानून की आँखों पर बंधी रही पट्टी
इंसाफ के तराज़ू में नोट भारी हो गए
                 मीनाक्षी मेहंदी

Thursday, 24 November 2016

हम दोनों



"हम दोनों"
हम दोनों नदी के दो तट,
दूर दूर पर साथ साथ,
कई योजन तक हमारा विस्तार,
पर नहीं मिलते क्षितिज जैसे भी,
तुम बता रहे होते बाज़ार भाव,
मेरे कानों में कोयल कूकती,
तुम उलझते यथार्थ के झंझावत में,
मैं कल्पना में फूल खिलाती,
तुम्हारे लिए जीवन तनाव,कठिनाइयां,विभिन्न सन्त्रास,
मेरे लिये जीवन उत्सव,आनन्द,निरंतर मधुमास,

हम दोनों दो ध्रुव उत्तर दक्षिण चुम्बक के,
हमारे विरोधाभास ही केंद्रबिंदु आकर्षण के,
तुम केवल मुझे चाहते हो?
मैं जानती हूँ-पर मानती नहीं,
मैं केवल तुम्हें चाहती हूँ?
तुम नहीं जानते-पर मानते हो,
और ये जानना,मानना ही बन जाता है अटूट विश्वास,
जिसमें जुड़ कर प्रेम व समर्पण,
बना देता है हमारे मध्य सेतु,
चहलकदमी करने लगती हैं इस पर,
मेरे तुम्हारे रिश्तों की पदचाप,
और बहने लगती है "हमारे रिश्तों" की नदी,
कलकल हमें जोड़ती हुई।
            मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी: विपरीत ध्रुवों में आकर्षण होता है ये सही है किंतु वो आकर्षण तभी कायम रह पाता है जब उसमें आकर्षण के साथ शामिल हो जाते हैं रिश्ते नाते जिम्मेदारियां और साथ साथ बिताये हँसी ख़ुशी और संग संग झेले गम के पल.....

Wednesday, 23 November 2016

क्या मुझे तुमसे प्यार है...

क्या मुझे तुमसे प्यार है ?
रूके रूके अटके कुछ झिझकते शब्दों में तुमने पूछा क्या मुझे तुमसे प्यार है
क्या कहूं क्या नहीं इसके प्रत्युत्तर में
आज तक इस प्यार को ही नहीं समझ पाई
कैसा है स्वरूप रंग ढंग इसका
सबने बताया अपनी मनोस्थिति अनुसार शब्दों में
आच्छादित किया भावनाओं की अभिव्यक्ति से
पर कोई परिभाषा कोई भी वाक्य
कर सकता है वणर्न इसका पूर्णयता
कदापि नहीं और न ही कभी इसे
व्यक्त किया जा सकेगा लिखित में
प्यार को वगीकृत भी किया जाता है
रिश्तो के अनुसार नापा तौला जाता है
तुमसे क्या है रिश्ता मेरा कौन समझ सकता है
ना हैं खून के नाते ना भावनाओं का बंधन
केवल इंसान से इंसान का ही नहीं है ये आत्मीय संबंध
कभी लगता है मैं तुम्हारी माँ थी पिछले जन्म में
कभी सोचती हूँ तुम्हें अपने पिता की तरह
कभी पग पग पर साथ देने वाले बंधु
कभी मुझे समझने वाले मित्र
कई रूपों में तुम द्रष्टिगत होते हो
पर ये ज्वलंत प्रश्न है-क्या मुझे तुमसे प्यार है
कहते हैं औरत प्यार ही करती है या नफरत ही
उसके मध्य का कोई मार्ग ज्ञात नहीं उसे
नफरत तो निस्संदेह तुमसे नहीं है मुझे
तो फिर प्यार ही होगा तुमसे
किन्तुु मुझे प्यार किससे नहीं है
जगत की प्रत्येक निर्जीव सजीव वस्तु से
प्रत्येक दृश्य अदृश्य कण से
बिखरी विचारधाराओं व कल्पनाओं से
सभी से है प्यार मुझे
हाँ तुमसे भी बेहद प्यार करती हूँ लेकिन
इसकी मात्रा रंग रूप नहीं बता सकती
अपना प्यार व्यक्त नहीं कर सकती
ना ही प्यार का प्रतिफल चाहती हूं
तुम भी अनुभव करो इसको सुगंध की तरह
रिश्तों का नाम देकर कम ना करो
इस असीम अगोचर अतुल्निय अकल्पनीय प्यार को
जो बिना बंधन बांधे है
तुम्हें और मुझे…….
                  मीनाक्षी मेहंदी

टिप्पणी: ये मेरी पहली रचना है इसलिए मुझे सर्वप्रिय है,जिसके लिए लिखी उन्हें कभी नहीं दे पायी या दे पाऊँगी या आवश्यकता ही नही उन्हें पढ़ाने की वो इन सब आकर्षणों से परे हैं,
 पर हाँ तब से मैंने अपनी भावनाओं को कलमबद्ध करना सीख लिया....
"इसलिये उन्हें कोटिशः धन्यवाद"

Tuesday, 22 November 2016

Messenger की मस्ती


(क्या खूब रही मैसेंजर पर)
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
जमाने के नए नए रंग आँखों के सामने आये
पापा के मित्र हम पर अपना स्नेह बरसाए
ताजे शेर पेश करके हमारा मान बढ़ाये
नन्नी गुड़िया की बेटी बड़ी हुई जान चकराए
अपने शुभ आशीष हम सब पर खूब बरसाये
पुरानी यादें ताज़ा कर मन भर आये
बीते पलों के मंजर आँखों के आगे आये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
सभी रिटायर मित्र अपनी रचनायें ले आये
खाली वक़्त में सबने लेखन लिया अपनाये
शौक मेरा मुझको बुज़ुर्गियत का अहसास कराये
पर सबकी वाहवाही ने हौसलें भी बढ़ाये
एक दूजे की खूबियां खामियां बताते जाये
मिलजुल रचनाओं से सजी दुनिया बनाये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
एक मित्र महोदय हमें देख खूब सकुचाये
तुम्हारा नाम अब अपनी पत्नी से कैसे छिपाएं
wapp पर पुरुष नाम save कर जान बचाय
तुम्हारी dp की फ़ोटो को मित्र की श्रीमती बताय
तुम बनी रहो यहीं पर हम भाग जायें
Meessengar delete कर ही सुकून पाये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
प्रथम दिन हमने भी अर्द्धरात्रि तक धमाल मचाये
चार मित्रों की डाँट पड़ी जब तब सोने को जाय
भेजा bouquet किसीको गड़बड़ emoji हाय
fontcolour बदल सबका पसंदीदा रंग दिखलाय
Wapp से डर नहीं लगता साहेब Meesengar से डर जाय
कुछ मित्रों ने तो ऐसे फ़िल्मी डॉयलॉग भी बरसाये
वाह क्या खूब दो दिन हमने मैसेंजर पर बिताये
             मीनाक्षी मेहंदी
टिप्पणी : ऊपरवाले ने हास्यबोध तो ख़ूब बख़्शा है किंतु हास्य लिखने में हाथ तंग है,थोड़ा प्रयास किया है किसी पर व्यक्तिगत आपेक्ष नहीं है।बस यूँ ही बैठे ठाले हंसी ठिठोली.....

Monday, 21 November 2016

"Happy44th world hello day"



दुनिया इस वर्ष 44 वां हैलो दिवस मना रही है। विश्व के कुछ प्रमुख नेताओं ने दो देशों के मध्य दीर्धकालीन युद्ध का समाधान करने हेतु संवाद के जरिये शांति स्थापित करने का प्रयास किया।1973 में एक संधि तैयार की गयी जिस पर 180 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं।
  संवाद जीवन की आवश्यकता है,प्रत्येक जीवित प्राणी किसी ना किसी रूप में परस्पर संवाद करता है।नेत्र भाषा या भावभंगिमा के द्वारा भी संवाद किया जाता है।मुस्कान की अपनी अलग ही भाषा होती है जिसके द्वारा किसी अज़नबी से भी अपनेपन का संवाद कर सकते हैं।
   आज के तकनीकी युग में संवाद के आधुनिक तौर तरीक़े email,sms,blog, Twitter, chatting app telecommunication आदि विकसित हो गये हैं ।
विभिन्न messenger app हैं जिनसे पलक झपकते ही अपनों व ग़ैरों के संग विचार अभिव्यक्त करने की सुविधा प्राप्त हो गयी है।
Social network से हमारी मित्रता का दायरा देश,विदेश तक विस्तृत हो गया है।
 ये सब होने के पश्चात भी परस्पर बातचीत करने से अलग ही दिली सुकून मिलता है।
भाषा का अविष्कार होने के साथ ही संवाद भी मानव जीवन का अभिन्न अंग बन गया है।
 किसी के मन की गहराइयों में उतरने के लिये संवाद आवश्यक है।
एक दूसरे के मन की बात, शिक़वे-शिक़ायत व लाड़ दुलार की अभिव्यक्ति यदि हावभाव के साथ बोल कर भी की जाये तो अलग ही सुखद अनुभव होता है।
  अपनों को पत्र लिखना भी संवाद का ही एक हिस्सा है जो अब लुप्त होता जा रहा है।
  डायरी लिख कर हम स्वयं से संवाद करते हैं जिसमें अपने राग-द्वेष,भावुकता,निजी प्रसंग व्यक्त करके हल्का महसूस करते हैं।परस्पर संवाद करते रहने से तनाव व अवसाद भी दूर रहते हैं।
 अतः आज विश्व हैलो दिवस पर ये संकल्प लें कि परस्पर संवाद कायम रखेंगें और अपने मन के भाव किसी ना किसी रूप में व्यक्त करते रहेंगें, जैसे मैं व्यक्त कर रही हूँ अपने ब्लॉग के माध्यम से.....
" वृक्ष लतायें,पुष्प सब हिल हिल कर
करते हैं बातें हमसे नित झर झर कर
सभी प्राणी बोली या अपनी मूक दृष्टि से
कहते अपनी व्यथा या ख़ुशी झट से
हम भी करें अपनी भावनाओं का संचार
संवाद द्वारा रचें बंधुत्व युक्त प्यारा संसार"

टिप्पणी:
।।संवाद से हर विवाद का समाधान सम्भव है,इसलिये हैलो करते रहें।।
ये हैलो दिवस का खास सन्देश है।

Sunday, 20 November 2016

"तुम"- एक प्रेम समीकरण



"तुम - एक प्रेम समीकरण"
गणित विषय का आकर्षण है,
उसमें समाई अदभुत जादूगरी
इसके जोड़ भाग हैं जीवन में,
रचे उतार चढ़ाव की बाजीगरी
विभिन्न आँकड़ो से युक्त है ये,
अनूठा अदभुत अनुपम संसार
शून्य से अनंत तक का इसमें,
समाया अनोखा वृहद विस्तार
सबसे सुहावने लगते हैं वो ,
मान लो वाले जटिल सवाल
गढ़ते हैं अज्ञात पद व मान,
बुनते समीकरणों का जाल
ऐसे ही कल्पना जगत में,
'तुम' हो मेरा माना हुआ पद
तुम्हें मान व अपना प्रेम मिला,
रच देती हूँ कभी कोई पद्ध
'तुम' नहीं हो ,कहीं नहीं हो ,
ना जड़ में हो ना ही चेतन में
पर मेरे अज्ञात तुम बसे हो,
मेरे चिंतन एवं अवचेतन में
मेरा काल्पनिक प्रेम ज्यूँ हो,
गणित का सवाल उलझा
लगा लो कोई भी सूत्र ढूंढ के,
ये यूँ ही रहेगा अनसुलझा
'तुम' हो अंजान, स्वप्निल,
जगमगाते मेरा अंतरकरण
तथा उतर आते हो बन कर,
मेरी रचना में प्रेम समीकरण
                मीनाक्षी मेहंदी



टिप्पणी : ना तो कुछ पूरा झूठ होता है ना कुछ पूरा सच।कुछ सपना,कुछ यथार्थ ,कुछ कल्पना और कुछ कहीं अवचेतन में बसी कोई छवि। उसी से उतर कर आते हैं रचनाओं के पात्र ,जो कभी जाने पहचाने लगते हैं तो कभी अंजाने...कभी अपने से और कभी पराये.....

Saturday, 19 November 2016

प्रिय मित्र को समर्पित

तेरा मेरा नेहबंध कैसा है
समझे हो तुम कभी
मैँ तो जब भी कोशिश करती हूँ
कुछ सुलझा कुछ अनसुलझा_सा पाती हूँ
क्यों एक कसक सी है जीवन में............
मैं समझ नहीं पाती हूँ
मन बंट गया हो जैसे दो भागों में............
हर पल एक अधूरापन सा घेरा रहता है
सुबह सुबह अँगड़ाई के साथ ही
याद तुम्हारी आती है
साँझ लेकर आती है
जुदाई का गहरा सा अहसास
कैसा है ये अपना नेह बंध
कभी एकदम खुला कभी अनजाना सा
अगर तुम समझ पाये हो इस बंधन को
तो समझा दो मुझे भी
जिस तरह समझा देते हो हर बार
दोस्ती की नयी परिभाषा
कैसा है ये अपना नेहबंध
कैसा है ये अपना नेहबंध......

Note: Any Person can make you realise how wonderful the world is..
But
Only few will make you realise how wonderful you are in their world.
Care for those few..

Friday, 18 November 2016

तुम सवाल बहुत करती हो!!!

*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*

ये तुम्हारा उलाहना था,शिकायत या .....
यूँ ही कहा एक वाक्य जैसे कह देते हो तुम कुछ भी....

यदि ये उलाहना था....?
तो सुनो...
सवाल करती हूँ जिससे जान सकूँ तुम्हें और भी अधिक
कभी कभी हम जानना कुछ चाहते हैं,पूछते कुछ और हैं
कभी कभी कहा कुछ जाता है,
समझते हम कुछ और ही
ये बात तुम भी समझते हो
फिर भी दे दिया मीठा सा उलाहना......
*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*

यदि ये शिकायत थी .....?
तो सुनो ...
सवाल करती हूँ जिससे दूर हो मध्य परसी ख़ामोशी
ख़ामोशी ना राह बताती है ना चाह,देती है नाउम्मीदी का अँधेरा
ख़ामोशी की दीवार से टकरा,
शब्द खो देते हैं अपने अर्थ
इसी दीवार को ढाने का, प्रयास होता है मेरे सवालों में
ये बात तुम भी मानते हो
फिर भी कर दी मीठी सी
शिकायत......
*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*

यूँ ही कहा एक वाक्य...?
तो सुनो...
सवाल करती हूँ यूँ ही जिससे बतिया सकूं कुछ पल तुमसे
अच्छा लगता है तुमको उलझाना, अटपटे सवालों में
अच्छा लगता है हँसना तुम्हारे
चटपटे जवाबों पर
यही हँसी ख़ुशी के पल हरदम बाटतीं हूँ तुम्हारे साथ
ये मिठास तुम्हें भी भाती है,
तभी तो तुम भी कह देते हो मुझसे यूँ ही.....
*प्रिय.....तुम सवाल बहुत करती हो!!!*


           *मीनाक्षी मेहंदी*

टिप्पणी: तल्ख हैं जो लोग वो ही दिल को मेरे भाये है
तल्ख़ हो बेशक जुबाँ से दिल से कोमल पाए है...........

Thursday, 17 November 2016

अर्थ का अर्थ



"धन संसाधन उपलब्ध करा सकता है किंतु विकल्प नहीं बन सकता"
 आदिमानव को जीवन सुचारू रूप से चलाने हेतु माँस,गुफा,खाल व हथियार चाहिए होते थे।कभी किसी भूखे आदिमानव ने अपनी किसी अतिरिक्त वस्तु को देने की पेशकश की होगी और जिस मानव पर माँस अतिरिक्त होगा उसने उसे खाल ,आवास या हथियार के बदले भोजन उपलब्ध करा दिया होगा।इस तरह से उपलब्ध संसाधनों का आदान प्रदान शुरू हुआ होगा।ये प्रथा सदियों से चली आ रही है तथा किसी ना किसी रूप में अब भी प्रचलित है।
    धीरे धीरे संसाधनों की विभिन्नता के संग आवश्यकता अनुभव हुई एक प्रतीक पूंजी की जिसे संग्रहित किया जा सके एवं अन्य मानवों से आवश्यकता होने पर उपलब्ध साधन क्रय किये जा सकें।
     किसी दुर्लभ धातु को अनाज,पालतू पशुओं,हथियार व अन्य आवश्यक वस्तुओं की सूची में सम्मलित कर लिया गया जिसके टुकड़ों अथवा सिक्कों से संसाधन क्रय किये जा सकते थे।
  प्रतीक मुद्रा के प्रयोग से मानव के इतिहास में बड़ा  क्रांतिकारी परिवर्तन आया,
अब मानव एक ही वस्तु का उत्पादन करके उससे प्रतीक मुद्रा के बदले विक्रय कर अपनी अन्य आवश्यक वस्तुएं क्रय कर लेता था।
 ये पूंजीवादी परिपाटी इतनी सुविधाजनक हो गयी कि अधिकांश व्यक्तियों को लगने लगा कि रुपया पैसा ही जीवन का आधार है।
    धन,सोना ,चांदी व अन्य कीमती वस्तुओं का मूल्य तभी तक है जब तक वो हमें प्रकृति द्वारा उपलब्ध विभिन्न संसाधन उपलब्ध कराते हैं,यदि आप किसी सुनसान जगह पहुँच जाते हैं तब जीवित रहने में आपकी जेब में धरी नोटों की गड्डियां व तन पर लादा हुआ सोना चांदी सहायक नही होगा।
   ये केवल प्रतीक हैं प्रकृति द्वारा उपलब्ध संसाधनों को सुविधापूर्वक प्राप्त करने हेतु।
  " इस अर्थ(धन) के महत्व का अर्थ समझ लें तो जीवन अर्थपूर्ण हो जायेगा।"


टिप्पणी: रजनीश का कथन है "तुम जिसको पैसा समझते हो वह एक मान्यता है अगर किसी दिन सरकार बदल जाए और रातोंरात यह एलान किया जाए कि फलाँ-फलाँ नोट नहीं चलेगा तो तुम क्या करोगे ? मान्यता को बदलने में देर कितनी लगती है? चंद कागज के टुकड़ों पर किसी का चित्र और हस्ताक्षर करने से वह मुद्रा बन गई और व्यवहारिक काम में आने लगी ... अब मान्यता बदल गई तो वह मुद्रा दो कौड़ी की हो जाएगी ... सारा खेल मान्यता का है .... जड़ वस्तुऐं मूल्यहीन हैं महज एक मान्यता है जिसने उन्हे मूल्यवान बना दिया है .... स्वर्ण रजत हीरे मुद्रा इनका मूल्य महज मान्यता का आरोपण है। जिस दिन तुम जगत की मान्यताओं से मुक्त हो गये उस दिन सब मिट्टी हो जाएगा उस दिन तुम चेतना को उपलब्ध होगे जो अनमोल है"

Wednesday, 16 November 2016

From my fb wall


सुख क्या है?"
क्या दुःख का अभाव सुख है?
कोई एक बात या परिस्थिति किसी के लिये सुखकर हो सकती है व किसी के लिए दुखदायी, ये तो हमारी मनोस्थिति पर निर्भर करता है कि हम सुख अनुभव कर रहे हैं या दुःख।
कभी कभी मन सुख दुःख दोनों से परे हो जाता है,पर उस उदासीनता में छिपा होता है "सम्भवतः गहन दुःख"....
जिसके साथ हम वर्षों बिता देते हैं,जो हमें बचपन से जानते हैं,जिन दोस्तों को हमारी एक एक बात पता होती है,वो भी हमें नहीं समझ पाते और एक fb मित्र जो हमारे बारे में कुछ नहीं जानता वो fb पर चंद पोस्ट पढ़ कर हमारी मनोस्थिति का सटीक आकलन कर यथारूप में समझ लेता है और उसका निवारण भी कर देता है,सुखद आश्चर्य ।
नहीं ये आभासी संसार नहीं है,ये वास्तविक संसार का ही एक भाग है जिसमें बसे हैं वास्तविक व्यक्ति,जो हमारी वास्तविक समस्याओं का देते हैं वास्तविक निवारण,बेहद आभार मित्र आपके मार्गदर्शन और उपयुक्त उपाय के लिए,मिल रही है शनेः शनेः नैराश्य से मुक्ति......
जीने लगी हूँ पहले से ज़्यादा.........

टिप्पणी: जाने क्या मैंने कही जाने क्या तूने सुनी बात कुछ बन ही गयी........

Monday, 14 November 2016

कच्ची मिट्टी




गंगा स्नान,गुरु नानक जयंती और बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
 
बच्चे होते हैं कच्ची मिट्टी

बड़े होने पर भी पूर्ण नहीं पकते

शेष कच्ची मिट्टी बनती है जीवनीशक्ति

Saturday, 12 November 2016

पहचान लोगे ना.......???


"मिलूंगी तो हूँ ही मैं तुमसे"

मिलूंगी तो हूँ ही मैं तुमसे
इस जन्म नही तो अगली बार
नही जानती कब किस रूप में
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे

ग्रीष्म की तप्त ऋतु में
प्रकट हूंगी जल स्रोत बन
तुम्हारी तृषा समेटने को
या शीतल छाया बन छाऊँगी
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे

क्या पता बन जाऊँ कोई वृक्ष
तुम्हारी पसन्द अमलतास सा
या निहारो दृष्टि भर वो गुलाब
तुम्हारे आंगन में बन जाऊंगी
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे

कभी बिन बुलाए ही बनूँगी गुनगुनी धूप सर्द मौसम की
गर्माहट भरा विश्राम देकर
झमेले तुम्हारे सभी भूलाऊंगी
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे

ओढ़ा दूँगी मेघों का आवरण
बदली बन तुम्हें भिगो जाऊंगी
खिल जाऊंगी इंद्रधनुष बनके
बिखर कर भी रंग दिखाऊंगी
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे

यदि हो प्रकृति की अनुकम्पा
तो सहचर बन मिल जाऊंगी
अर्पण और समर्पण से प्रीत अपनी सदियों तक निभाऊंगी
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे

वादा रहा मिलूंगी अवश्य
कुछ पल या सदा के लिये
मूर्त या अमूर्त किसी भी
रूप में तुम्हारे पास आऊंगी
किन्तु तुम पहचान लेना मुझे...
         मीनाक्षी मेहंदी

तुम तो दोस्त......थे...?????

"तुम तो दोस्त थे"
रह रह कर चुभाते रहे ह्रदय में शूल,
हम रूठे तो मनाया क्यों नहीं?
अर्थहीन हो गए जब सब शब्द,
आँसू पोंछ गले से लगाया क्यों नहीं?
कुछ कहा तुमने कुछ सुना हमने,
लगा कहासुनी हुई हमारे मध्य,
हम चल दिए पलट कर रुख ,
आवाज़ लगा क़दमों को रोका क्यों नहीं?
कुछ कहना सितम हो सकता है,
बेबस मन सुन कर चुप हो सकता है,
तुम्हे सुन चुप हो गए हम ,
पहल कर मौनावरण तोड़ा क्यों नहीं?
छलनी हो गया एक पल में,
सदियों में जमा था जो विश्वास,
अविश्वास पनपने दिया तुमने,
स्नेह,आदर जोड़ा क्यों नहीं?
किया स्वीकार ये कटु सत्य,
ना थी कोई भूल दोनों की,
तदापि बढ़ा परस्पर वैमनस्य,
आँसुओ से प्रायश्चित किया क्यों नहीं?
तुम तो दोस्त थे प्रिय अतिप्रिय,
अटूट था हमारा सम्बन्ध,
रिश्ता चूर चूर किया किसने
साथ दोस्ती का निभाया क्यों नहीं?
               मीनाक्षी मेहँदी

Thursday, 10 November 2016

एक प्रश्न

"एक प्रश्न"
हे सखी ,आज तुमने मुझे उलझन में डाल दिया
करके सीधा सा प्रश्न..क्या मैं ख़ुश हूँ?
ये ख़ुशी क्या है हमारे मन की एक भावना ही तो है
जब जैसे जी चाहे अपने विचारों को हम मोड़ दें
जैसा चाहते हों वैसा तरीका अपना कर खुश हो लेँ
इस प्रकार तो खुश होना बहुत सरल है...
किन्तु मन को बहलाना भी इतना ही सरल है?
यदि कोई गम मेरे निकट नही है
तो समझ लो मैं शायद खुश ही हूँ...
लेकिन सच्ची ख़ुशी क्या है?
तुम ही बता दो
मैं तो सुख ढूंढते ढूंढ़ते थक गई हूँ
लगता है सुख कोई मृगमरीचिका है
जो है मुझमें ही निहीत
और मैं अन्य स्थानों पर खोजती भागी जा रही हूँ
नहीँ मिल पा रही है जब कहीँ भी ख़ुशी
मैं दीवानी होती जा रही हूँ
सुनो ख़ुशी और आनंद ऐसे इत्र है ...
जिन्हें जितना दूसरा पर छिड़कोगे
उतनी सुगंध तुम्हारे भीतर समायेगी
किन्तु मेरे हाथ तो रीते हैं
उनमें कोई सुगन्ध पात्र नहीं है
कहाँ से इत्र मैं छिड़क पाऊँगी
औरों को सुगन्धित कर खुद भी महक पाऊँगी
मेरे पास तो हैँ सिर्फ गिले,शिकवे,ताने,कुछ सिसकते पल
वही तुम्हे बता पाऊँगी
स्वयँ तो हूँ दुखी अपना हाल बताते बताते तुम्हें भी उदास कर जाऊँगी
अतः मेरी सखी मुझसे कुछ ना पूछो
मुझे नहीं पता ख़ुशी क्या है?
मेहँदी रहती है स्वयँ में मग्न रह कर ख़ुश
तुम भी स्वयँ में मग्न रह कर
मुझे ख़ुश समझ लो...
मीनाक्षी मेहँदी

प्यार तुमसे है तो निभाएंगे भी उसे
कभी जुदा न समझना अपने से मुझे

Tuesday, 8 November 2016

अहिल्या के राम



(अहिल्या के राम)
सारे अरमान सपने बिसरा कर मैं जिए जा रही थी
यंत्र की भाँति हर आदेश मन प्राण से निभा रही थी
क्यूँ राम बन कर कोई आ गया मेरे जीवन में पिया
इस पत्थर की अहिल्या को पुर्नजीवित कर दिया
फूट गयीं अनछुये स्पर्श से शिला में सम्वेदनायें
जग गईं अदृश्य सानिध्य से यंत्र में भावनायें
रिमोट चालित पराधीन रोबॉट ही सबको भाता है
स्वेच्छा स्वाधीनता से भला स्त्री का क्या नाता है
तुम भी आशंकित हो गये हो यंत्र के जीवित होने से
बन्धन बांध बचाना चाहते हो  घोसलें को उजड़ने से
ज्ञात है तुमने अथक श्रम से जुटाया है दाना गुटका
पर मैंने भी करीने से सजाया संवारा है तिनका तिनका
कुछ क्षण स्वछंद उड़ने दो निगलेगी नहीं जग की भीड़
आश्वस्त रहो मुक्त हो कर भी सहेजूँगी ये अतिप्रिय नीड़

Monday, 7 November 2016

चेहरा



चेहरा
कहते हैं चेहरा हॄदय का दपर्ण होता है
मेरे चेहरे से नहीं समझ पाता है कोई मुझे
क्या आती है मुझे अपने मनोभाव छिपाने की कला
अथवा असमर्थ हूँ मैं अपने मनोभाव प्रकट कर पाने में
मेरे हंसने, खिलखिलाने का सीधा अर्थ क्यों लिया जाता है
ये भी तो सच है कि गम छिपाने के लिये मुस्कुराया जाता है
कई बार बनावटी हंसी के आवरण तले छुपाया है दुखों को
जैसे चिङिया समेट लेती है अपने बच्चों को अपने डैनों में
बच्चों की तरह ही सहलाया है मैंने अपने कष्टों को
पोषित किया है अपनी देखरेख में, पर कभी कभी लगता है
कोई समझ पाता मेरी हंसी के पीछे छुपे दर्द को
या फिर काश चेहरा होता हॄदय का दर्पण…..
                             
                                              मीनाक्षी मेहंदी

Sunday, 6 November 2016

वो नायाब शॉल


(वो नायाब शॉल)
आज भी संजोये हूँ स्मृतियों में वो पल निराला
धूप में बैठी देख रही थी शॉल काला काला
फेरीवाला अपनी कारीगरी दिखा रहा था
किंतु मुझे कोई भी शॉल ना भा रहा था
बसी है तुम्हारी वो छवि अब भी नैनों के अंदर
एक शॉल ओढ़ बोले लगेगा तुमपर अति सुन्दर
तुम्हें देखकर उस समय तो मैं मात्र हंस दी थी
तुम्हारे जाने के बाद उसी शाल के लिए अड़ गयी थी
फेरीवाला चला गया करके अपना मनचाहा हिसाब
अपने अंक में समेट लिया मैंने वो शॉल नायाब
जब भी तुम्हारा वियोग मचाता है खलबली
वो शॉल ओढ़ कर पाती तुम्हारा स्पर्श मख़मली
इस पर कढ़े बूटों में तुम्हारी दाढ़ी की चुभन सा आवेग
इसकी आंच में बसा तुम्हारी
सांसो की गर्मी सा संवेग
जब जी चाहता लपेट इसे आ जाती हूँ तुम्हारे आलिंगन में
और सराबोर हो जाती हूँ तुम्हारी चिरपरिचित गंध में।
                                 मीनाक्षी मेहंदी


टिप्पणी: सर्दी की आमद के साथ निकल आती हैं पिटारे में छिपी यादें विभिन्न विभिन्न रूपों में......

Saturday, 5 November 2016



आपकी इनायत जो आपने हमें अपना समझा
वरना हम तो अपनों के शहर में बेगाने थे
MM

Friday, 4 November 2016

विछोह


"जब कोई वस्तु हमें नहीं मिलती तब हम नियति समझ लेते हैं पर जब कुछ मिल कर लुप्त हो जाता है तब उसका विछोह असहनीय होता है"


टिप्पणी:कहते हैं वक़्त के साथ जख्म भर जाते हैं,ऐसा नहीं होता हम उन जख़्मों के साथ जीना सीख जाते हैं........

Thursday, 3 November 2016

"प्रीत मेरी जल जैसी"



"प्रीत मेरी जल जैसी"
प्रीत मेरी जल जैसी निर्मल
तुम्हारा कहा सब हो जाता इसमें घुलनशील
बस तुम्हारी उपेक्षा ही रह जाती है अघुलनशील
तैर जाती है काई बन कर
देती प्राणवायु मेरे जज्बातों को
एवं कागज पर उकेर देती हूँ कुछ शब्द
प्रीत मेरी जल जैसी पारदर्शी
जिसमें समा जाती हैं तुम्हारी सब भावनायें
रंग जाती हैं तुम्हारे ही रंग में मेरी कामनाएं
तुम जब जिस रूप में मुझमें झांकते हो
दिखा देती हूँ वैसा ही तुमको प्रतिबिंब
एवं पटल पर बिखेर देती हूँ कभी इंद्रधनुष
प्रीत मेरी जल जैसी शीतल
सूर्य रश्मियाँ जब होती तीव्र प्रचंड
उड़ उड़ बन जाती हूँ मेघ उदंड
आतुर हो उठती हूँ करने को विनाश
तुम्हारी स्नेहिल दॄष्टि से हो जाती शांत
एवं तटबंध में समा जाती बन सरिता
प्रीत मेरी जल जैसी
             मीनाक्षी मेहंदी

Wednesday, 2 November 2016

क्यूँ विवश..........????



क्यूँ विवश….?

क्या यही जीवन मैंने चाहा था
एक पंखहीन पंछी की भांति
कैद रहूँ पिंजरे की चारदीवारी में
यूँ ही युग युगान्तर तक
हाँ,बेहद सुरक्षित हूँ यहाँ
पर मुझे आकर्षित करता है
विशाल व्योम,मेरे पंखो के अवशेष करते हैं प्रेरित
की मैं उडूं,फङफङाऊं तोड़ दूँ
दुनिया के सभी बंधन
मुक्त हो जाऊँ कहीं भी
बैठने और चुगने के लिए
ज्ञात है ये जीवन सुगम नहीं होगा
मासूम परिंदे के लिए नहीं है ये दुनिया
हर मोड़ पर आधात लगाये बैठे हैं
बाज, व्याध्र और मनुष्य जैसे खतरे
सुरक्षा नहीं भाती है मुझे
विपत्तियों से खेलना है मुझे
किन्तु कहाँ से लाऊं साहस
सामाजिक बंधन तोड़ने का
सोचा हुआ संभव नहीं हो सकता
सिसकते हुये दम तोड़ देंगी
मेरी समस्त इच्छायें
काश….मेरे एक प्रश्न का
उत्तर दे कोई
“क्यूँ विवश हो जाते हैं
हम उनके ही सामने जिन्हें
सबसे अधिक प्यार करते है…?
        मीनाक्षी मेहंदी

भैया दूज की महत्ता



 हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार सूर्य की संज्ञा से दो संतानें थी एक पुत्र यमराज और दूसरी पुत्री यमुना। संज्ञा सूर्य का तेज सहन न कर सकी और छायामूर्ति का निर्माण करके अपने पुत्र और पुत्री को सौंपकर वहां से चली गईं। छाया को यम और यमुना से किसी प्रकार का लगाव न था, लेकिन यमराज और यमुना में बहुत प्रेम था। यमराज अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे, लेकिन ज्यादा काम होने के कारण अपनी बहन से मिलने नहीं जा पाते। एक दिन यम अपनी बहन की नाराजगी को दूर करने के लिए उनसे मिलने पहुंचे। भाई को आया देख यमुना बहुत खुश हुईं। भाई के लिए खाना बनाया और आदर सत्कार किया। बहन का प्यार देखकर यम इतने खुश हुए कि उन्होंने यमुना को खूब सारे भेंट दिए। यम जब बहन से मिलने के बाद विदा लेने लगे तो बहन यमुना से कोई भी अपनी इच्छा का वरदान मांगने के लिए कहा। यमुना ने उनके इस आग्रह को सुन कहा कि अगर आप मुझे वर देना ही चाहते हैं तो यही वर दीजिए कि आज के दिन हर साल आप मेरे यहां आएं और मेरा आतिथ्य स्वीकार करेंगे। कहा जाता है इसी के बाद हर साल भाई दूज का त्यौहार मनाया जाता है।