Sunday, 25 March 2018

उतना लीजिये थाली में ,जो ना जाये नाली में(१६)

"उतना लीजिये थाली में ,जो ना जाये नाली में"

     मेहंदी के बाबा उसके चाचाजी व चाची जी के साथ पुश्तैनी घर में रहते थे कुछ दिनों के लिए रहने आये।सब बच्चे बाबा से खूब खुश थे उनसे तरह तरह की बातें करते,मेहंदी तो मितभाषी थी बाबा से कम ही बोलती।बाबा भी उसे कम ही तजव्वो देते थे।बाबा की एक अजीब आदत थी जब वो खाना खाते तो ख़ूब बड़े बड़े ग्रास प्रत्येक सब्जी से निकालते थे।मेहंदी की मम्मी हमेशा से खाना ना छोड़ने और जितना खा सकते हो उतना ही लेने की सलाह देती थीं।सभी सदस्य इसका पालन भी करते थे,अपवाद स्वरूप ही कभी भोजन कोई थाली में छोड़ता था।बाबा को ऐसा करते देख उसके मुख से निकल गया कि बाबा तो आधा खाते हैं आधा बर्बाद करते हैं,बसजी बाबा का पारा चढ़ गया जरूर इसकी माँ ने सिखाया होगा वरना ये तो बोलती ही नहीं है।गुस्से में उन्होंने खाना खाने से भी इंकार कर दिया।मम्मी मनाती रह गयी पर वो मुँह फुलाये बैठे रहे
डॉ साहब के आने पर उन्हें सब बताया।अपनी लाड़ली के लिए तो वो कुछ सुन ही नहीं सकते थे उन्होंने अपने पिताजी को समझाया कि शशी बच्चों को खाना बर्बाद करने को मना करती है वही मेहंदी ने सीखा है, ग्रास निकलते हुए उसने पहली बार देखा तो उसे लगा आप खाना छोड़ रहे हो,इसलिए ऐसा कह दिया फिर मम्मी से नई थाली परोस कर लेन को कहा और प्रेम से अपने सामने खिलाया तब बाबा माने।बूढ़े बच्चे एक समान होते हैं इसलिये ही कहा जाता है।मेहंदी अपने बाबा से थोड़ा और सहमी रहने लगी कि कहीं मुँह से गलत ना निकल जाये तथा ये भी सोचती रही कि गलती तो उसकी थी पर बाबा अपनी बहू से इतना नाराज़ क्यों हुए,आखिर किसी की भी गलती का ठीकरा बहू के ऊपर ही क्यों फूटता है।

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