Thursday, 1 March 2018

होली की नादानी(१३)

                होली की नादानी(१३)
    होली के रंगारंग उत्सव पर मौसी और ममेरी बहन आये थे।डॉ साहब के मित्र ख़ूब उत्साहित कि साली साहिबा आयीं हैं उनके साथ होली खेलने को मिलेगी।
    मेहंदी और ममेरी बहन को होली से बहुत हो डर लगता था।वो तरह तरह के लाल हरे रंग पुतवाना फिर उन्हें हटाना, बड़ा ही बोरिंग काम लगता था।तो उन दोनों ने तय किया कि होली नहीं खेलेंगें किन्तु किसी को बतायेंगें भी नहीं कि हमें होली पसन्द नही है।सुबह होते ही डॉ साहब व भाइयों ने रंग घोलना और हुड़दंग मचाना शुरू कर दिया।मम्मी ने उन सब को बाहर भेजा ये कहकर ,जब खाना बन जायेगा तब घर में रंग शुरू करना।दोनों बहनें खाना बना कर निबटी ही थीं तभी डॉ साहब के दोस्तों की टोली आ गयी।ममेरी बहन और मेहंदी घबरा गईं अब तो ये सब हमे पोत देंगें क्या करें।मेहंदी को ध्यान आया घर में एक ख़ूब बड़ा सन्दूक है जिसमें रजाई गद्दे रखे रहते हैं,उसके पीछे इतना स्थान था कि दोनों छिप जातीं।वही छिप कर वो बाहर से आता हुड़दंग सुनती रहीं और डरतीं भी रहीं, कोई उन्हें यहाँ ढूंढ ना ले।जब छिपे छिपे दोनों थक गयी तो धीरे धीरे बाहर निकल कर आयीं,तो क्या देखा ख़ूब रंग हो गया है तथा सब नहाने और धुलाई आदि में व्यस्त हैं। बाहर से आये सब चले गए हैं, उन दोनों से किसी ने पूछा भी नहीं कि कहाँ थी रंग क्यों नही लगाया है।उन दोनों को रंगों से बचने की ख़ुशी भी हो रही थी और दुःख भी हो रहा था कि कोई उनके साथ होली खेलने के लिए लालायित ही नहीं था और वो व्यर्थ में ही छिपी रहीं।कभी कभी ऐसा भी होता है दुनिया के डर कहीं और नहीं हमारे भीतर ही छिपे होते हैं हम खुद को डराते रहते हैं तथा इस कारण जग के कई निराले रंगों का सामना करने से वंचित रह जाते हैं।

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