जब हमारी त्वचा में कोई तिनका आ जाता है तो उसे फाँस कहते हैं,जब तक फाँस निकल नहीं जाती हमारा मन वहीं अटका रहता है,इतने वृहद तन में एक तिनका पूरा ध्यान आकर्षित कर लेता है,जब तक वो फाँस निकल ना जाये तब तक कुछ नहीं भाता है।
ऐसे ही हमारे मन में कोई घटना या बात अटक जाती है और फाँस की भाँति चुभती रहती है किंतु मन की फाँस तन की फाँस के विपरीत होती है......
तन की फाँस तब चुभती है जब कुछ अवांछित आ जाता है पर मन की फाँस तब चुभती है जब कुछ मिला हुआ छिन जाये या फिर कुछ कमी हम अपने जीवन में अनुभव करते हो।
तन की फाँस तो सरलता से निकल जाती है व इसके बाद हम उसे भूल भी जाते हैं किन्तु मन की फाँस आसानी से नहीं निकलती तथा रह रह कर कसकती रहती है।
अभी एक समारोह में एक संभ्रान्त महिला से भेंट हुई औपचारिक बातचीत में मैंने पूछा आपके कितने बच्चे हैं ,उन्होंने कहा 7 किन्तु मेरी एक बेटी नहीं रही ,एक व्यक्ति के लिए सन्तान खोने से बड़ा दुःख कोई नहीं हो सकता किन्तु जो जीवित हैं उनकी बातचीत ना करके उनका मन वहीँ अटका हुआ था....
ऐसा होना स्वाभाविक ही है विछोह का दुःख असहनीय होता है किन्तु जो कभी मिला ही नही उसका भी दुःख गजब होता है ...
काश और अगर से इन दुखों की उत्तपत्ति होती है, मनुष्य का पूरा ध्यान कमी पर ही केंद्रित हो जाता है एवं वो कमी उसे टीस देती रहती है ठीक फाँस की ही भाँति।अतीत में जो हमारे साथ हुआ अथवा जो हम परिस्थितिवश नहीं कर पाये उन बातों की कसक रह रह कर होती है तथा हमारा अतीत नासूर बन वर्तमान को दुखाता रहता है।
" जो बीत गयी,वो बात गयी"
यदि सुखी रहना है तो वर्तमान में जीना सीखो,जो है जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार कर लो तो जीवन में आनन्द छा जायेगा ।
सम्भवतः आत्मपीड़ा में भी एक सुख मिलता है हम स्वयं को दुःखी रख कर दूसरों की सहानुभूति एकत्र कर स्वयं को महत्वपूर्ण समझने लगते हैं,यदि मनुष्य अपनी सोच समयानुसार परिवर्तित करता रहे तो उसे कोई दुखी नहीं कर सकता।
आवश्यकता है मन की फाँस निकाली जाये और उस जगह को उपचारित कर दिया जाये सकारात्मक सोच व वर्तमान में जीने की कला सीख कर।
मीनाक्षी मेहंदी
ऐसे ही हमारे मन में कोई घटना या बात अटक जाती है और फाँस की भाँति चुभती रहती है किंतु मन की फाँस तन की फाँस के विपरीत होती है......
तन की फाँस तब चुभती है जब कुछ अवांछित आ जाता है पर मन की फाँस तब चुभती है जब कुछ मिला हुआ छिन जाये या फिर कुछ कमी हम अपने जीवन में अनुभव करते हो।
तन की फाँस तो सरलता से निकल जाती है व इसके बाद हम उसे भूल भी जाते हैं किन्तु मन की फाँस आसानी से नहीं निकलती तथा रह रह कर कसकती रहती है।
अभी एक समारोह में एक संभ्रान्त महिला से भेंट हुई औपचारिक बातचीत में मैंने पूछा आपके कितने बच्चे हैं ,उन्होंने कहा 7 किन्तु मेरी एक बेटी नहीं रही ,एक व्यक्ति के लिए सन्तान खोने से बड़ा दुःख कोई नहीं हो सकता किन्तु जो जीवित हैं उनकी बातचीत ना करके उनका मन वहीँ अटका हुआ था....
ऐसा होना स्वाभाविक ही है विछोह का दुःख असहनीय होता है किन्तु जो कभी मिला ही नही उसका भी दुःख गजब होता है ...
काश और अगर से इन दुखों की उत्तपत्ति होती है, मनुष्य का पूरा ध्यान कमी पर ही केंद्रित हो जाता है एवं वो कमी उसे टीस देती रहती है ठीक फाँस की ही भाँति।अतीत में जो हमारे साथ हुआ अथवा जो हम परिस्थितिवश नहीं कर पाये उन बातों की कसक रह रह कर होती है तथा हमारा अतीत नासूर बन वर्तमान को दुखाता रहता है।
" जो बीत गयी,वो बात गयी"
यदि सुखी रहना है तो वर्तमान में जीना सीखो,जो है जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार कर लो तो जीवन में आनन्द छा जायेगा ।
सम्भवतः आत्मपीड़ा में भी एक सुख मिलता है हम स्वयं को दुःखी रख कर दूसरों की सहानुभूति एकत्र कर स्वयं को महत्वपूर्ण समझने लगते हैं,यदि मनुष्य अपनी सोच समयानुसार परिवर्तित करता रहे तो उसे कोई दुखी नहीं कर सकता।
आवश्यकता है मन की फाँस निकाली जाये और उस जगह को उपचारित कर दिया जाये सकारात्मक सोच व वर्तमान में जीने की कला सीख कर।
मीनाक्षी मेहंदी
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