Tuesday, 9 June 2020

किराये की साइकिल(३५)

  • साइकिल की सवारी सभी ने पढ़ी होगी पढ़ कर काफी लोगों को समानता भी लगी होगी। किन्तु साइकिल की सवारी कभी भी सरल नही होती, और यदि घर मे साइकिल ना हो तब तो और भी। एक दौर ऐसा भी था जब साइकिल होना भी बड़ी बात होती थी किसी किसी घर मे ही साइकिल होती थी वो भी पूरे आकार की ।ऐसे में बच्चों को साइकिल सीखने के लिए एक ही उपाय होता था...किराये की साइकिल, जो कुछ पैसों के किराये पर एक घण्टे के लिए मिल जाती थीं।दोनों भाई किराये पर साइकिल लाते थे तथा हवा से बातें करते। एक दिन मेहंदी ने भी साइकिल चलाने की सोची किन्तु चलाने का प्रयास करते ही धूल धूसरित हो गयी।उसके बाद किसी दिन दुबारा साहस ही नही किया मेहंदी ने साइकिल चलाने का। दोनों भाई किराये पर साइकिल लाकर खूब सन्तुलन बनाना सीख गए। उसके बाद पूरे आकार की साइकिल भी कैंची रूप में चलाने लगे फिर धीरे धीरे पापा के स्कूटर पर भी गाहे बगाहे हाथ आजमाने लगे। पर मेहंदी वहीं ठिठकी रही साइकिल से गिरने के डर से सहमी हुई। उसे कोई प्रेरित नही कर पाया, और फिर प्रेरणा मिली कई साल पश्चात। जब उसकी ममेरी बहन जो दिल्ली में पढ़ती थी उसने उसे साइकिल सीखाने की ठान ली। तब तक साइकिल घरों में आम हो चलीं थी साथ ही लेडीज़ साइकिल भी कॉमन हो गयी थीं। जिस साइकिल पर उन्होंने सीखा उसके ब्रेक लगते नहीं थे चेन बार बार उतर जाती थी, घण्टी भी सही से नहीं बजती थी। लेकिन अब मन में लगन थी। और जब लगन लग जाये तो असम्भव कार्य भी संभव हो जाते हैं फिर साइकिल सीखना तो आसान ही था।इस तरह मेहंदी ने सीखी साइकिल चलाना और उसे सीखने में क्या क्या वाकयात हुए वो मेहंदी के उस उम्र में पहूँचने के बाद वर्णित किये जायेंगे।

Monday, 8 June 2020

मूवी से मिली सीख(३४)

उन्ही दिनों एक मूवी आयी क्रांति उसकी खूब धूम मची हुई थी।डॉ साहब अपनी श्रीमती जी को साड़ियां दिलाने दुकान पर लेकर गए वहां भी क्रांति साड़ियों की धूम थी।डॉ साहब को अपने पसंदीदा नीले रंग की साड़ी पसन्द आ गयी और श्रीमती जी को भी किन्तु मेहंदी दूसरी साड़ी को लेने के लिए कहने लगी। मम्मी पापा समझ नही पाए कम बोलने वाली मेहंदी ने आज ऐसी फरमाइश क्यों की। पर दुकानदार बाल मनोविज्ञान समझ गया। वो डॉ साहब से बोला मुझे पता है बिटिया ये साड़ी क्यों पसन्द कर रही है और हँसते हुए हरे रंग का एक छोटा सा पर्स जिस पर क्रांति लोगो सहित लिखा था मेहंदी की तरफ बढ़ा दिया। बिटिया ये उपहार रख लो जो साड़ी तुम्हारी मम्मी ने ली है उसके साथ भी ये पर्स मिल जाएगा। मेहंदी खुशी से ठुमक उठी, घर आते ही सबसे पहले गुल्लक से रुपये निकाल कर पर्स में रखे फिर सब सहेलियों को नया पर्स इठलाते हुए दिखाने निकली। अगले दिन डॉ साहब ने क्रांति मूवी देखने का कार्यक्रम तय किया। मम्मी पापा के साथ मेहंदी मूवी देखने गयी।अपने नए पर्स के साथ मेहंदी मूवी देखने गयी। आगे की सीट पर कुछ लम्बे लोग बैठे थे तो मेहंदी को मूवी देखने में दिक्कत होने लगी उसने खड़े होकर मूवी देखना शुरू कर दिया उसका पर्स हाथ मे लटका आगे की सीट छू रहा था पर मेहंदी फ़िल्म में खोई हुई थी।घर आकर दोनों भाइयों को मूवी के संवाद सुना खूब चिढ़ाया।दोनों भाई भी मूवी की जिद करने लगे ,डॉ साहब ने उन्हें भी मूवी देखने भेज दिया। मेहंदी ने पर्स खोल कर देखा तो वो खाली उसका दिल धक से रह गया .....मेरी सारी बचत खत्म। वो रुआंसी हो पापा के पास पहुंची और पर्स दिखया , पापा ने पूछा पर्स कहीं थोड़ी देर को रखा तो नही था, मेहंदी ने कहा नही फिर उसे ध्यान आया फ़िल्म देखते समय आगे सीट पर बैठे लड़को के मध्य पर्स लटका हुआ था उसने पापा से कहा शायद उन लड़कों ने निकाल लिया हो। पापा ने पूछा कितने रुपये थे ? मेहंदी ने बता दिए और अपने रुपये खोने के दुख में गुमसुम तथा रुआंसी हो गयी। बस एक बात की तसल्ली थी कि दोनों भाई घर पर नहीं थे वरना उसे बेबकूफ लापरवाह जाने क्या क्या कह कर तंग करते। वो गुमसुम बैठी थी तभी डॉ साहब उतने ही रुपये लेकर मेहंदी के पास आये जितने उसके पर्स में थे और बोले मैंने तुम्हारे पर्स से मूवी देखने जाने से पहले निकाल लिए थे क्योंकि मुझे डर था कहीं रुपये चोरी ना हो जायें, मेहंदी खुशी के मारे पापा से लिपट गयी। पापा ने मेहंदी को समझाया किस तरह रुपये पैसों का ध्यान रखना चाहिए, दुनिया मे अच्छे लोग हैं तो ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों के धन को चुरा लेते हैं।मूवी देखकर आयी मेहंदी को मूवी से तो देशभक्ति की शिक्षा मिली ही साथ ही रुपये सम्भालने की इतनी समझ मिली कि आने वाले समय मे उसके हाथ से एक चवन्नी भी नहीं खोती थी। मूवी देख जब दोनों भाई आये तो फ़िल्म के एक किरदार की तरह हाथ मे स्टील का गिलास पहन कर और भी सम्वाद बोल बोल और गानों पर अभिनय कर, चना जोर गरम करते हुए खूब धमाल मचाया।कई दिन तक इस मूवी की धूम मची रही। पता नहीं मेहंदी के रुपये वाकई चोरी हुए थे या डॉ साहब ने उसे शिक्षा देने के लिये पर्स से निकाले थे पर सच्चाई जो भी हो डॉ साहब का शिक्षा देने का अंदाज अनूठा ही था।

Saturday, 30 March 2019

नवाब साहब से हाथ मिलाना(३२)

              नवाब साहब से हाथ मिलाना(३२)
     नई जगह आने के बाद नित्य कुछ नवीन घटित होता रहता है कभी कोई नई जगह देखने को मिलती है कभी नई तरह के लोगों से मिलने को मिलता है ।विद्यालय तो नया था ही नई सखियां बन गई थी 6 साल की बच्चे के लिए यह सब सामंजस्य करने बहुत ही सरल थे ,क्योंकि बच्चे कच्ची मिट्टी की भांति शीघ्र ही नए परिवेश में ढल जाते हैं मेहंदी में भी नये विद्यालय नई सखियों के मध्य तारतम्य बैठा लिया था। मेहंदी के पापा को बच्चों को घुमाने फिराने का भी खूब शौक था। दशहरे का मौका आया रावण का पुतला लगा ,खूब आतिशबाजी की तैयारियां थी,उस दिन दशहरे के मुख्य अतिथि थे जिले के सांसद और उस रियासत के नवाब साहब। जब भी कोई प्रमुख व्यक्ति ऐसे मौकों पर आता है तो डॉक्टर की ड्यूटी लगती है डॉक्टर साहब की भी ड्यूटी लगी थी बच्चे भी पहुंच गए मेले में 6 साल की मेहंदी को एहसास ही नहीं था कि पापा ड्यूटी कर रहे हैं वह तो मेले का आनंद ले रही थी अपने भाइयों के साथ और आनंद लेने के बाद पापा के पास पहुंच गई ।पापा ने भी मेहंदी को नवाब साहब से मिलाया उन से हाथ मिलाने को कहा नवाब साहब ने मेहंदी की तरफ हाथ बढ़ा दिया।मेहंदी ने सकुचाते हुए हाथ मिला लिया। उसके लिए यह कोई महत्व की बात नहीं थी कि वह नवाब हैं या सांसद हैं, वह तो पापा का ही कोई परिचित समझकर उनसे नमस्ते कर रही थी। जब मेहंदी बड़ी हुई तब उस एहसास हुआ कि उसने कितनी बड़ी शख्सियत से हाथ मिला रखा है ।।           कितना अच्छा होता है ना वह मासूम प्यारा भोला सा बचपन जहां ना कोई बड़ा होता है ना कोई छोटा होता है ।  माता पिता के निर्देशानुसार  ही हमारा परिचय विभिन्न क्षेत्रों से होता है जिसे सब अपनी बुद्धिअनुसार समझते हैं। समय के नए-नए आयाम मेहंदी की आंखों के आगे खुल रहे थे और वह सीख रही थी सब कुछ नया ऐसे ही जीवन धारा चलती रहती है। कोई भी मां के पेट से सीख कर नहीं आता यह दुनिया ही उसे सब कुछ सिखा कर पारंगत बना देती है।
   मासूम सी मेहंदी दुनिया में आकर कुछ कुछ सीखने लगी थी पर अभी भी वह काफ़ी काफी नादान थी ।वह मेहंदी जो विद्यालय से आकर सर्वप्रथम गृह कार्य करती थी अब थोड़ी ढिलाई करने लगी थी। एक दिन डॉक्टर साहब के टोकने पर वह कह बैठी कि यहां तो मेरी नई-नई सहेलियां बन गई है इसलिए मैं उनके साथ खेलने में लगी रहती हूं। 6 साल की बच्ची की वह मासूम बात सब रिश्तेदारों को बड़ी हंसी हंसी बताई जाती थी, तब मेहंदी को एहसास हुआ कि कुछ बोलने से पहले सोचना पड़ता है नहीं तो परिहास बनता है ।यह एक छोटी सी बात मेहंदी को सोच समझ कर बोलने की कला सिखा गयी।

Friday, 1 February 2019

मूवी का चस्का ( ३३)

मूवी का चस्का(३३)
  1. चलचित्र, मूवी,या फिल्में जिस नाम से भी पुकारा जाए रहेगा भारतीय जनमानस से जुड़ा एक अहम हिस्सा ही। कुछ चीजें जीवन से इस कदर जुड़ी होती है कि वह हमें अलग से एक उद्योग लगता ही नहीं, लगता है यह हमारे जीवन का ही एक अभिन्न अंग है जैसे पढ़ना लिखना, घूमना फिरना, रिश्तेदारों से मिलना, त्यौहार मनाना, जीवन में दिनचर्या में आरंभ से ही सम्मिलित रहता है, ऐसे ही हिंदी फिल्में देखना भी जीवन में एक कार्य की तरह ही जुड़ा रहता है ।डॉ साहब को टैक्स फ्री फिल्में देखने और दिखाने का बड़ा ही चाव था । उनका कहना था कि सरकार इन फिल्मों को टैक्स फ्री इसलिए करती है क्योंकि इसमें समाज के लिए कोई आवश्यक संदेश होता है, और उस आवश्यक संदेश को देखने के लिए हमें यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए..... मेहंदी को तो बस पापा का साथ चाहिए होता था, चाहे वह टैक्स फ्री फिल्म दिखाएं या कला फिल्म अथवा मसाला फिल्म दिखाएं , मम्मी पापा और मेहंदी तीनों जाया करते थे टैक्स फ्री फिल्में देखने स्कूटर से।
  2. छोटा भाई बहुत ही छोटा था वह घर पर रह जाता था मुरारी नाम के सेवक के पास तथा दोनों बड़े भाई डॉक्टर साहब से डील कर लेते थे कि वह मसाला फिल्म देखेंगे, टैक्स फ्री फिल्म नहीं देखेंगे, और प्रसिद्ध महानायक की फिल्म देख कर आया करेंगे ।मेहंदी तो देखकर आती थी ब्रजभूमि, दुल्हा बिकता है, पशु संग्राम आदि जैसी टैक्स फ्री फिल्में तथा दोनों भाई देख कर आते थे महानायक की खुद्दार, सत्य पे सत्ता, नसीब ,देश प्रेमी,नमक हलाल जैसी मसाला फिल्में और घर आकर सबको जलाते हुए ढिशुम ढिशुम करते, फिल्मों के प्रसिद्ध संवाद सुनाते थे। मेहंदी रुआंसी हो जाती तो डॉक्टर साहब उसके मन की बात समझ जाते और फिर वह लोग भी देख कर आते ,बॉलीवुड की हिट मसाला फिल्म।इस तरह मेहंदी दोनों फिल्म देख लेती थी मसाला फिल्म भी और टैक्स फ्री फिल्म भी।  उसके बाद तीनो भाई बहन मिलकर उस फिल्म के खूब डायलॉग बोलते ,ढिशुम ढिशुम करते हुए गाने गुनगुनाते घूमते ।
  3.    कोई रिश्तेदार आता तो उनको भी मूवी दिखाने ले जाया जाता ,उन दिनों बाहर खाना खाने का इतना रिवाज नहीं था तथा टीवी पर भी अधिक प्रोग्राम नहीं आते थे ।गर्मियों की छुट्टियां आदि में जब भी कोई रिश्तेदार आता था तो मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन बॉलीवुड फिल्म ही होती। पूरी पूरी फैमिली रिक्शा में भरकर फिल्में देखने जाती थी और फिर कई दिन तक चर्चा होती थी। खास तौर पर फिल्म के एक्शन और संवादों की धूम मची रहती थी। इसके अलावा फिल्म के गानों की भी अंताक्षरी होती और टेप रिकॉर्ड पर फिल्म के गानों की कैसेट सुनी जाती। जब तक एक फिल्म का खुमार उतरता था तब तक दूसरी फिल्म आ जाती थी और फिर वही सब उसके साथ होता था।
  4.  एक अलग ही दौर था जब छोटी-छोटी खुशियों में एक मूवी देखना भी एक बहुत बड़ी लग्जरी माना जाता था और टीवी पर आने वाली रविवारिय मूवी भी इतनी ही शिद्दत से देखी जाती चाहे कैसी भी फिल्म को टीवी पर देखने का एक अलग ही क्रेज होता था। जल्दी जल्दी से बच्चे पढ़ाई करके बैठ जाते थे शाम को मूवी देखेंगे महिलाएं भी खाने की तैयारी करके रख देती कि मूवी देखते समय बीच में उठना ना हो , तथा सभी उस फिल्म को बहुत उत्साहित होकर देखा करते थे ।
  5. उस समय टीवी भी बहुत ही कम घरो में होते थे तथा खिड़की पर आसपास के बच्चों का जमघट लग जाता था जो फिल्म देखते समय खूब हल्ला गुल्ला करते थे। सुनने देखने में व्यवधान तो होता था पर उनके उत्साह को देखकर अच्छा भी लगता था, ऐसा ही दौर था वह जब सब लोगों की खुशी में अपनी भी खुशी दिखती थी। और कम साधनों में भी अधिक से अधिक आनंद आता था । 
  6. एक बार दूरदर्शन पर फिल्म आ गई, चला मुरारी हीरो बनने और हमने अपने सेवक मुरारी को खूब छेड़ा कि तू तो हीरो बनने जा रहा है हीरो बनने.... और वह भी खूब ही खुश हुआ, इतना खुश हुआ जैसे कि वाकई में उसी के ऊपर वह फिल्म बनी हो ।बस यही पल होते थे छोटे-छोटे, आनंद खोजने के, कम साधन में भी और अन्य को खुश करके खुशी मनाना मूल मंत्र था उन दिनों जीवन का।

Thursday, 31 January 2019

दुकानदारी(३१)

दुकानदारी (३१)
   एक बार मेहंदी और उसके भाइयों ने टॉफी बिस्किट्स  की दुकान लगाने की सोची। पड़ोस के भी 3 बच्चे तैयार हो गए बोलो उन्होंने अपने गुल्लक खोली, उसमें निकले ₹7 .75 , 25 पैसे बच गए और ₹7 50 का सामान ला कर दुकान सजा ली । उसमें थी ऑरेंज वाली कैंडी खट्टी मीठी चूसने की टोपियां लॉलीपॉप च्यूइंगम और भी इसी तरह का समान । पड़ोस के 3 बच्चे भी ले आए अपने पास इकट्ठे रूपयों का इकट्ठा रूपों का सामान। उन्होंने भी सामने ही एक कपड़ा बिछाकर दुकान से सजा ली। आमने सामने अपनी दुकानों पर तीन-तीन बच्चे बैठे हैं खुद खुद ही बैठे-बैठे बोर हो गए किसी की कोई बिक्री नहीं हो रही थी तो बीच वाले भैया को विचार आया उनके पास एक चवन्नी बची थी उसे ले जाकर पड़ोस के बच्चों से टॉफियां ले आए और खा ली। अब सामने वाले बच्चों के पास आ गईं चवन्नी उन्होंने मेहंदी  से टॉफी खरीदी और खा लीं। मेहंदी ने फिर उनसे बिस्कुट वगैरह खरीदे इस तरह से होते-होते पूरी दुकान का सामान बिक गया। और उन लोगों ने एक दूसरे का सब सामान खा लिया शाम को पापा आए मेहंदी जल्दी से भागी पापा के पास। पापा को पता था आज दुकान लगाई है उन्होंने पूछा और सुनाओ तुम्हारे समान कितना बिका ।मेहंदी बहुत खुश पापा पापा हमारा दोनों दुकानों का सामान सारा बिक गया।वह पहली बार दुकानदारी की और 100 प्रतिशत बिक्री। और बताओ कितना मुनाफा हुआ ।मेहंदी बोली ,पापा बिक्री तो बहुत हुई पर मुनाफा नहीं हुआ जो चवन्नी हमारे पास थी वहीं बच गई और इसके अलावा कुछ नहीं ।पापा ने पूरा किस्सा सुनाऔर हंसते हुए बोले तुम लोगों की बस की नहीं है दुकानदारी। दुकानदार नहीं बन सकतेतुम कभी भी। इसी के साथ उन लोगों का 1 दिन का बिजनेस समाप्त हुआ जो सिखा गया कि सबक खेल खेल में ही।

Wednesday, 9 January 2019

पहला व्रत (३०)

पहला व्रत (३०)
     महाशिवरात्रि का पर्व घर में मम्मी पापा का व्रत हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी था। इस बार बच्चों को भी चाव लगा हम भी व्रत रखेंगे, मम्मी को क्या परेशानी बिना व्रत का अलग बनाती और अब सारा खाना एक साथ ही बन जाएगा उन्होंने भी हाँ कह दी।
   स्कूल की छुट्टी थी ही सुबह सुबह उठकर सब स्नान कर मंदिर गए भगवान शिव का जलाभिषेक किया, उसके पश्चात घर आए मम्मी तो रसोई घर में व्यस्त हो गई और बच्चों को तो सताने लगी भूख ,भूल गए कि आज व्रत रखा है अलमारी में मूंगफली रखी थी, झट से निकाली और फट से खालीं।खाते-खाते याद आया अरे आज तो व्रत रखा था ये क्या हुआ  जीवन में पहली बार व्रत रखा वो भी टूट गया। बीच वाले भैया शरारती थे उन्होंने कहा अब तो व्रत टूट ही गया है तो क्यों ना ऐसा करें बिस्कुट खा लेते हैं और उन्होंने बिस्किट्स का पैकेट खोला। तीनों ने खा लिया लेकिन मन बड़ा गुमसुम था कि पहली बार रखा व्रत टूट गया ।तभी पापा भी  घर आ गए उनको देखकर मेहंदी झट गयी उनके पास। पापा पापा मेरा व्रत टूट गया। ओह्ह कैसे? डॉ साहब ने पूछा।मूंगफली मुँह लटकाये मेहंदी ने कहा। अरे बिटिया मूंगफली तो व्रत में खा सकते हैं तुम्हारा व्रत नहीं टूटा। मेहंदी चहक उठी अच्छा पापा बिस्किट्स खाने से?
    बिस्किट नहीं खाते हैं व्रत में ।
  अब तो मेहंदी को इतना दुःख हुआ जितना मूँगफली खाने से व्रत टूटने का सोच कर भी नहीं हुआ था। गुस्सा भी आया बीच वाले भैया पर उनके कारण ही.....गुरर्र।
     शाम को एक अंकल आये उन्हें पूरा किस्सा पता लगा तो उन्होंने बताया जब वो बचपन मे व्रत रखने की जिद करते थे तो उनकी मम्मी एक दाढ़ का व्रत रखने को कहती थीं वो एक तरफ के दांतों से पूरा खाना खा लेते थे। मेहंदी तुमने एक तरफ से ही तो बिस्किट खाये होंगें। मेहंदी को इतना ध्यान नहीं था उसका व्रत ना रख पाने का संताप जन्माष्टमी का व्रत रखने के पश्चात ही दूर हुआ। उसके बाद मेहंदी ध्यानपूर्वक जन्माष्टमी व शिवरात्रि के व्रत सालोंसाल रखती रही।

Sunday, 16 December 2018

जब मेहंदी ने पैसे बोये (२९)

   मेहंदी के  पास  इकट्ठी हो गई थीं चंद चवन्नी उसने बड़े भैया से पूछा इनका क्या किया जाए इत्तेफाकन उसी दिन  सुबह डॉक्टर साहब ने क्यारी में डाले थे पपीते के बीज बस बड़े भैया को झट एक विचार आया उन्होंने मेहंदी से कहा इन्हें भूमि में बोते हैं और फिर उनका पेड़ निकलेगा जिस पर आएंगी बहुत सारी चवन्नी । फिर हम उनके पैसे तोड़कर खूब सारी चीजें खरीद सकते हैं मासूम मेहंदी झट से उनकी बातों में आ गयी और क्यारी में  बो दी अपनी जमापूंजी ।भैया ने समझाया रोज इसमें ध्यान से पानी डालना तो यह हो जाएंगे पौधे जल्दी-जल्दी बड़े। मेहंदी नित्य पानी डालने लगी और जल्दी निकल आए छोटे-छोटे हरे हरे पौधे जो बढ़ने लगे दिन दूनी रात चौगुनी तेजी से।मेहंदी देख देख कर फूली ना समाती उस पर आने लगे छोटे-छोटे पपीते ,मेहंदी ने भैया से कहा इस पर चवन्नी नहीं यह क्या लगा। भैया बोले यह फल है जब बड़े हो जाएंगे और हम इन को काटेंगे तब इनके अंदर से बीजों की तरह निकलेंगी चवन्नियां। मेहंदी बड़ी खुश और भी ध्यान से पौधों की देखभाल करने लगी धीरे-धीरे पपीते हो गए बड़े अब मेहंदी को लगा यह तो पपीते हैं उसने भैया से कहा ये तो पपीते हैं, भैया बोले चवन्नी के फल भी पपीते जैसे होते हैं पकने का इंतजार तो कर ।इस बार पूछा पापा से उन्होंने  बता दिया यह पपीते हैं जब पक जायेंगे तब मिलकर खाएंगे। मेहंदी गुस्से में गई बड़े भैया के पास और पूछा भैया अभी आप ने मुझे बेबकूफ़ बनाया यह पपीते नहीं हैं  कि पापा से पूछ लिया है ।मेरी चवन्नी ढूंढो। भैया हँसने लगे बोले उनकी तो मैंने उसी दिन जमीन से निकालकर टॉफी खा ली थीं खेल खत्म पैसा हजम। मेहंदी अपनी मूर्खता पर रोती बिसूरती रह गयी ।

टिप्पणी : कितने सपने कैद रहते थे उन छोटी सी चवन्नियों में, सारा जहां खरीदने की ताकत लगती थी उनमें । एक दिन ऐसा आया सारे सपने ताकत खत्म तथा लुप्त हो गयी चवन्नी।

Wednesday, 28 November 2018

वो नेट की फ्राक (२८)

                      वो नेट की फ्रॉक (२८)
   डॉक्टर साहब ने एक बहुत सुंदर पीच रंग की फ्रॉक जिसमें खूब सारी फ्रिल थी मेहंदी को दिलवाई ,मेहंदी जिस भी उत्सव में उसे पहन कर जाती है सब उसकी बहुत तारीफ करते हैं बिल्कुल परी लग रही हो। मेहंदी को भी वह फ्रॉक बहुत भाती, सबसे बड़ी बात उस फ्रॉक में चार जेबें लगी हुई थी लड़कियों को जेब वाले कपड़े कभी कभी ही पहनने  को मिलते हैं जब भी मिलते हैं वह खूब इतराती हैं।
        समय के साथ साथ वह फ्रॉक मेहंदी को छोटी होने लगी और मम्मी ने उसे घर में पहनाने लगी मेहंदी को वह फ्रॉक जब घर में पहनने को मिलने लगी तो उसकी कदर खत्म हो गई ।   अब उसके और नए नए कपड़े आ गए थे मेहंदी का मन उन्हें पहनने को करता था इस फ्रॉक से पीछा छुड़ाना चाहती थी किंतु मम्मी कहती थी इतनी कीमती फ्रॉक है थोड़ी दिन और पहनकर कर वसूल कर लो एक बार आसपास के बच्चों और मेहंदी के भाई बहनों ने मिल के जेल परिसर में लगे जामुन के पेड़ से जामुन तोड़ने का प्लान बनाया सब बच्चों ने खूब जामुन तोड़े जिसने भर सकते थे अपनी अपनी जेब में भरे मेहंदी ने भी फ्रॉक की जेबों में और उसके बाद भी जो जामुन बचे, उसे उन्हें फ्रॉक के घेरे में भर लिए पूरे फ्रॉक पर जामुन के रस के धब्बे पड़ गए । मेहंदी खुशी खुशी घर आई देखो मम्मी कितने सारे जामुन लायी हूं। मम्मी  का तो पारा चढ़ गया सारी फ्रॉक दाग़दार कर ली अब कैसे छूटेंगे जामुन के दाग आसानी से नहीं जाते पूरी पोशाक का सत्यानाश कर लिया ।मम्मी की डांट से रूआंसी होने के बाबजूद भी मेहंदी ने सोचा चलो अब फ्रॉक से छुटकारा मिला।अनजाने में ही सही चोखा काम हो गया ,दाग अच्छे हैं, उस दिन के बाद मेहंदी ने वो फ्रॉक कभी नहीं देखी। लेकिन कुछ समय पश्चात जब कभी मेहंदी को मूँगफली रखनी होती या बाजार से टॉफी वगैरा लानी होती तो उसे जेब की कमी महसूस होने लगी और उसे याद आती अपनी पीच फ्रॉक, अब मेहंदी अक्सर अब मेहंदी अक्सर अपनी उस फ्रॉक को याद करती , लेकिन एक बार बेकार होने के बाद पुनः वह फ्रॉक नहीं मिल सकती थी ।इन्सान की फितरत  ऐसी ही है जब तक कोई चीज उसे नहीं मिलती तब तक उसे आकर्षित करती है उसे रिझाती है जब उसे वो चीज मिल जाती है तब कुछ समय तक उसको बहुत ही ध्यान पूर्वक रखता है परन्तु आसानी से उपलब्ध होने पर वो उसकी कदर करना भूल जाता है ।और फिर जब उससे उसका बिछोह होता है तब उसे फिर से उसकी कदर होने लगती है और वह उसे याद करने लगता है ।मनुष्य के संग ऐसा क्यों होता है जब कोई चीज हमारे पास होती है तब हम उसकी कदर क्यों नहीं कर पाते? उसकी कदर तभी क्यों होती है जब वह हमसे दूर होती है ?क्यों? आखिर क्यों?

Monday, 22 October 2018

जड़ों से पुनः जुड़ना(२७)

जड़ों से पुनः जुड़ना(२८)
    डॉ साहब का  अपने गृह जनपद  में स्थानांतरण हो गया ।पुनः अपनी जड़ों से जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ। वहां जेल परिसर में मिला खूब बड़ा सा मकान उनका निवास बना उस मकान के चारों और खूब सारी खुली जमीन थी खूब चौड़ी चौड़ी दीवारें थी जिस पर सब बच्चे पैरों पैरों भी चल लेते थे । किराये के घर में रह कर आने के बाद बड़े से सरकारी मकान में रहना सबको बहुत सुखद लग रहा था। मकान के पास खाली  जमीन में उगाये भांति भांति के फूल और सब्जियां ।टमाटर, कद्दू ,लौकी, तुरई, प्याज व करेला भिन्न-भिन्न तरह की सब्जियां उगाई गई इसके अलावा सर्दियों के मौसम में पालक मेथी हरा धनिया प्रचुर मात्रा में उगाया गया। रोज मम्मी खूब सारे अंडे उबाल कर रख देती मेहंदी खेलते खेलते मम्मी के पास आकर कहती मम्मी एक आलू दे दो और मम्मी एक उबला हुआ अंडा दे देतीं मेहंदी उसका पीला भाग खाती थी और सफेद हिस्सा कौवे को खाने के लिए फेंक देती। मेहंदी का छोटा भाई भी अब अपने पैरों पर धीरे धीरे चलने लगा था ,कभी कभी वह दूध पीने में आनाकानी करता था तो वह तीनों भाई बहन उसे घेरकर खड़े हो जाते और उसके मुंह में शीशी लगाकर फिल्मी गाने गाना शुरू कर देते थे और फिल्मी गानों की तर्ज वह जल्दी जल्दी जल्दी मुँह चला कर सारी शीशी खाली कर देता था अपना यह छोटा सा प्रयास भाई बहनों को बड़ी खुशी देता था ।तरह तरह की शरारतें करते हुए उनका बचपन अत्यंत सुखद और आराम से गुजरने लगा कई बार तीनों बच्चे पापा के साथ जेल के अंदर कैदियों को देखने भी गए वहां बड़े-बड़े खूंखार कैदी थे।
      उनकी लाल लाल आंखें देखकर मेहंदी को तो डर भी लगने लगा लेकिन कुछ कैदी बिल्कुल ही सामान्य इंसानों की तरह थे। उनको खाना बनाने का काम सौंपा गया था, मेहंदी ने देखा एक जगह खूब सारी रोटियां एक साथ बनते हुए खूब बड़ी सी जगह पर आटा बेला जाता था और उसे गोल-गोल काट लिया जाता था फिर सेकते थे। खाने के लिए कैदियों की लाइन लगती थी।उनके द्वारा कई अन्य  तरह के कार्य यथा खेतीबाड़ी आदि भी कराये जाते ।बड़े चाव से ये सब देखते हुये जीवन में आने वाली परिस्थितियों के बारे में काफी कुछ सीखने और जानने को मिला अपने गृह जनपद में अपने दादा दादी का घर और चाचा चाची से मिलना रिश्तो से जुड़ा गया।
     कुछ कैदी डॉ साहब के घर के पास की जमीन की निराई गुड़ाई करने भी आ जाते थे तथा मम्मी के द्वारा बनी चाय पीकर ही जाते थे। जेल का सायरन बजने पर सिपाही उन्हें चलने के लिए कहता था तो वह डॉक्टर साहिबा के हाथ की चाय पिए बिना जाने को तैयार ही नहीं होते थे,कहते थे तुम तो गुड़ की चाय पिलाओगे यहाँ चीनी की चाय मिलती है ।
    मम्मी भी उनसे खूब बातें कर लेती थी। एक बार एक कैदी से उन्होंने पूछा तुम सजा मिलने से पहले क्या काम करते थे कैदी बोला मैं बाल काटता था तो मम्मी बोली कि अच्छा पहले सर की घास काटते थे अब जमीन की घास काट रहे हो। इसी तरह के हास परिहास के मध्य खूब खुशी खुशी उनके काम करते थे ।
    मेहंदी को आश्चर्य भी होता था कि मम्मी इतनी सहजता से इन अपराधी लोगों से कैसे बात कर पाती हैं पर गांधी जी ने कहा है "घृणा पाप से करो पापी से नहीं " मेहंदी की मम्मी इस बात का बखूबी ध्यान रखती थीं।

Tuesday, 25 September 2018

नादान मोनू(२६)

नादान मोनू(२६)
 सांप्रदायिक दंगे किसी देश की संपत्ति सुख-शांति प्रगति को तो भंग करते ही हैं अपितु उस देश के जनों की भावनाओं को भी कई तरीके से परिवर्तित कर देते हैं ।जो दंगों की विभीषिका में जलता है वहीं इस दर्द को समझ सकता है। इसी तरह के परिवारों में एक परिवार था मेहंदी की दूर के रिश्ते की मौसी का ।उनके पति को दंगाइयों ने खत्म कर दिया था ऐसा भी अनुमान से ही कहा जा सकता है क्योंकि जब शहर में दंगे भड़क रहे थे तब वे अपने काम से वापस आ रहे थे और कभी भी अपने घर लौट कर नहीं आ पाए हमेशा के लिए लापता हो गए ना ही उनका शव मिला ना ही उनका कोई समाचार केवल एक अनुमान ही जीवन पर्यंत लगाया जाता रहा कि दंगाइयों  द्वारा उनको समाप्त कर दिया गया होगा । एक औरत की दशा का अनुमान  कीजिए जो ना सधवा रही ना विधवा । बिना पति के अपने बच्चों को संभालना,उनका पालन  पोषण एक घरेलू भारतीय  महिलाा के लिए  बहुत ही दुष्कर कार्य था। किंतु जब सर पर कोई विपदा आ पड़ती है तो उसे सहने की शक्ति भी ईश्वर प्रदान करते हैं। रिश्ते नातों की परख भी ऐसे प्रतिकूल समय में ही होती  है।
      मौसी के दुख से सभी द्रवित थे और जितना भी बन पड़ता था उनकी सहायता करने के लिए तत्पर रहते थे। मेहंदी की मम्मी भी जब अपने मायके गई तब अपनी बहन और उनकी बच्चों की सहायतार्थ कुछ सामान लेकर उनसे मिलने गयी, यह मेहंदी की मम्मी का बड़प्पन ही था कि वह कभी यह नहीं जतलाती थी कि हम तुम्हारी सहायता के लिए सामान लाए हैं अपितु वह एक बड़ी बहन द्वारा जिस तरह मिलने पर कुछ भी भेंंट इत्यादि लेकर जाते हैं उसी रूप में सब चीज लेकर जाती थीं। फल ,मिठाई वस्त्र इत्यादि जो कुछ संभव होता था प्रदान कर आर्थिक भरपाई करने का प्रयास उनके सम्मान को ठेस पहुंचाए बिना करतीं।
    दोनों बहनें अपना सुख-दुख बाटनें  में व्यस्त हो गयीं और सभी बच्चे छत पर खेलने में। छत पर खेलते खेलते अचानक  ही मोनू  रुक गया और एकटक मेहंदी को देखता रहा देखता रहा देखता ही रहा। मेहंदी बहुत छोटी थी पर फिर भी वह सोच रही थी कि मुझे क्यों ऐसे देखे जा रहा है। वह लोग कोई पकड़म पकड़ाई जैसा खेल खेल रहे थे और अचानक ही मोनू नीचे अपनी मम्मी के पास चला गया। सब बच्चे आपस में फिर खेलने में व्यस्त हो गए थोड़ी देर बाद सब बच्चों को नाश्ता करने के लिए नीचे से पुकारा गया वहां जाने पर मोनू की मम्मी ने हंसते हुए बताया कि हमारा मोनू तो कह रहा है वह बड़े होकर मेहंदी से शादी करेगा । मेहंदी लजा गयी  शायद लड़कियां  बचपन से ही समझने लगती है कि  शादी विवाह जैसी बातों पर शर्माना चाहिए । खैर बचपन की मासूमियत समझ बात आई गई हो गई ,लेकिन तब से जब भी किसी को मौका मिलता वह मेहंदी को चिढ़ाने का मौका नहीं छोड़ता। बड़े होने के बाद मेहंदी  की शादी हो गई और मोनू की भी। लेकिन किसी विवाह उत्सव या अन्य पारिवारिक समारोह में मोनू मिलता तो एक बार मेहंदी से जरूर पूछता था 'तुम कैसी हो "और मेहंदी हंस करके देती "अच्छी हूं ,और तुम बताओ भाभी जी कैसी हैं ?"मोनू भी हंसकर कह देता " अच्छी है 'लेकिन उसकी आंखों का खालीपन मेहंदी कभी समझ ही नहीं पाती थी बहुत बाद में मेहंदी को यह एहसास हुआ कि एक बार केवल एक बार अगर वह भी कह देती कि तुम कैसे हो तो शायद मोनू की आंखों का वो खालीपन भर जाता ।एक बार मेहंदी ने निश्चय किया, इस बार उससे मिलने पर वह जरुर पूछेगी कि तुम कैसे हो पर नियति का परिहास ही जानिये उस  दिन के बाद किसी समारोह में मोनू  मेहंदी से मिला ही नहीं और मेहंदी टकटकी लगाए हर समारोह में सोचती है कि शायद वो आएगा और वो पूछेगी तुम कैसे हो ,और भर देगी उसके मन का वह खाली कोना जिसमें बचपन से केवल उसी के लिए जगह रिक्त है। कच्ची उम्र का आकर्षण कभी-कभी शायद बड़े होने तक जीवित रहता है जिसे बचपना समझ कर भूल जाते हैं किंतु एक स्थान रिक्त रहता है जीवन पर्यंत ही ........