Tuesday, 9 June 2020

किराये की साइकिल(३५)

  • साइकिल की सवारी सभी ने पढ़ी होगी पढ़ कर काफी लोगों को समानता भी लगी होगी। किन्तु साइकिल की सवारी कभी भी सरल नही होती, और यदि घर मे साइकिल ना हो तब तो और भी। एक दौर ऐसा भी था जब साइकिल होना भी बड़ी बात होती थी किसी किसी घर मे ही साइकिल होती थी वो भी पूरे आकार की ।ऐसे में बच्चों को साइकिल सीखने के लिए एक ही उपाय होता था...किराये की साइकिल, जो कुछ पैसों के किराये पर एक घण्टे के लिए मिल जाती थीं।दोनों भाई किराये पर साइकिल लाते थे तथा हवा से बातें करते। एक दिन मेहंदी ने भी साइकिल चलाने की सोची किन्तु चलाने का प्रयास करते ही धूल धूसरित हो गयी।उसके बाद किसी दिन दुबारा साहस ही नही किया मेहंदी ने साइकिल चलाने का। दोनों भाई किराये पर साइकिल लाकर खूब सन्तुलन बनाना सीख गए। उसके बाद पूरे आकार की साइकिल भी कैंची रूप में चलाने लगे फिर धीरे धीरे पापा के स्कूटर पर भी गाहे बगाहे हाथ आजमाने लगे। पर मेहंदी वहीं ठिठकी रही साइकिल से गिरने के डर से सहमी हुई। उसे कोई प्रेरित नही कर पाया, और फिर प्रेरणा मिली कई साल पश्चात। जब उसकी ममेरी बहन जो दिल्ली में पढ़ती थी उसने उसे साइकिल सीखाने की ठान ली। तब तक साइकिल घरों में आम हो चलीं थी साथ ही लेडीज़ साइकिल भी कॉमन हो गयी थीं। जिस साइकिल पर उन्होंने सीखा उसके ब्रेक लगते नहीं थे चेन बार बार उतर जाती थी, घण्टी भी सही से नहीं बजती थी। लेकिन अब मन में लगन थी। और जब लगन लग जाये तो असम्भव कार्य भी संभव हो जाते हैं फिर साइकिल सीखना तो आसान ही था।इस तरह मेहंदी ने सीखी साइकिल चलाना और उसे सीखने में क्या क्या वाकयात हुए वो मेहंदी के उस उम्र में पहूँचने के बाद वर्णित किये जायेंगे।

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