- साइकिल की सवारी सभी ने पढ़ी होगी पढ़ कर काफी लोगों को समानता भी लगी होगी। किन्तु साइकिल की सवारी कभी भी सरल नही होती, और यदि घर मे साइकिल ना हो तब तो और भी। एक दौर ऐसा भी था जब साइकिल होना भी बड़ी बात होती थी किसी किसी घर मे ही साइकिल होती थी वो भी पूरे आकार की ।ऐसे में बच्चों को साइकिल सीखने के लिए एक ही उपाय होता था...किराये की साइकिल, जो कुछ पैसों के किराये पर एक घण्टे के लिए मिल जाती थीं।दोनों भाई किराये पर साइकिल लाते थे तथा हवा से बातें करते। एक दिन मेहंदी ने भी साइकिल चलाने की सोची किन्तु चलाने का प्रयास करते ही धूल धूसरित हो गयी।उसके बाद किसी दिन दुबारा साहस ही नही किया मेहंदी ने साइकिल चलाने का। दोनों भाई किराये पर साइकिल लाकर खूब सन्तुलन बनाना सीख गए। उसके बाद पूरे आकार की साइकिल भी कैंची रूप में चलाने लगे फिर धीरे धीरे पापा के स्कूटर पर भी गाहे बगाहे हाथ आजमाने लगे। पर मेहंदी वहीं ठिठकी रही साइकिल से गिरने के डर से सहमी हुई। उसे कोई प्रेरित नही कर पाया, और फिर प्रेरणा मिली कई साल पश्चात। जब उसकी ममेरी बहन जो दिल्ली में पढ़ती थी उसने उसे साइकिल सीखाने की ठान ली। तब तक साइकिल घरों में आम हो चलीं थी साथ ही लेडीज़ साइकिल भी कॉमन हो गयी थीं। जिस साइकिल पर उन्होंने सीखा उसके ब्रेक लगते नहीं थे चेन बार बार उतर जाती थी, घण्टी भी सही से नहीं बजती थी। लेकिन अब मन में लगन थी। और जब लगन लग जाये तो असम्भव कार्य भी संभव हो जाते हैं फिर साइकिल सीखना तो आसान ही था।इस तरह मेहंदी ने सीखी साइकिल चलाना और उसे सीखने में क्या क्या वाकयात हुए वो मेहंदी के उस उम्र में पहूँचने के बाद वर्णित किये जायेंगे।
Tuesday, 9 June 2020
किराये की साइकिल(३५)
Monday, 8 June 2020
मूवी से मिली सीख(३४)
उन्ही दिनों एक मूवी आयी क्रांति उसकी खूब धूम मची हुई थी।डॉ साहब अपनी श्रीमती जी को साड़ियां दिलाने दुकान पर लेकर गए वहां भी क्रांति साड़ियों की धूम थी।डॉ साहब को अपने पसंदीदा नीले रंग की साड़ी पसन्द आ गयी और श्रीमती जी को भी किन्तु मेहंदी दूसरी साड़ी को लेने के लिए कहने लगी। मम्मी पापा समझ नही पाए कम बोलने वाली मेहंदी ने आज ऐसी फरमाइश क्यों की। पर दुकानदार बाल मनोविज्ञान समझ गया। वो डॉ साहब से बोला मुझे पता है बिटिया ये साड़ी क्यों पसन्द कर रही है और हँसते हुए हरे रंग का एक छोटा सा पर्स जिस पर क्रांति लोगो सहित लिखा था मेहंदी की तरफ बढ़ा दिया। बिटिया ये उपहार रख लो जो साड़ी तुम्हारी मम्मी ने ली है उसके साथ भी ये पर्स मिल जाएगा। मेहंदी खुशी से ठुमक उठी, घर आते ही सबसे पहले गुल्लक से रुपये निकाल कर पर्स में रखे फिर सब सहेलियों को नया पर्स इठलाते हुए दिखाने निकली। अगले दिन डॉ साहब ने क्रांति मूवी देखने का कार्यक्रम तय किया। मम्मी पापा के साथ मेहंदी मूवी देखने गयी।अपने नए पर्स के साथ मेहंदी मूवी देखने गयी। आगे की सीट पर कुछ लम्बे लोग बैठे थे तो मेहंदी को मूवी देखने में दिक्कत होने लगी उसने खड़े होकर मूवी देखना शुरू कर दिया उसका पर्स हाथ मे लटका आगे की सीट छू रहा था पर मेहंदी फ़िल्म में खोई हुई थी।घर आकर दोनों भाइयों को मूवी के संवाद सुना खूब चिढ़ाया।दोनों भाई भी मूवी की जिद करने लगे ,डॉ साहब ने उन्हें भी मूवी देखने भेज दिया। मेहंदी ने पर्स खोल कर देखा तो वो खाली उसका दिल धक से रह गया .....मेरी सारी बचत खत्म। वो रुआंसी हो पापा के पास पहुंची और पर्स दिखया , पापा ने पूछा पर्स कहीं थोड़ी देर को रखा तो नही था, मेहंदी ने कहा नही फिर उसे ध्यान आया फ़िल्म देखते समय आगे सीट पर बैठे लड़को के मध्य पर्स लटका हुआ था उसने पापा से कहा शायद उन लड़कों ने निकाल लिया हो। पापा ने पूछा कितने रुपये थे ? मेहंदी ने बता दिए और अपने रुपये खोने के दुख में गुमसुम तथा रुआंसी हो गयी। बस एक बात की तसल्ली थी कि दोनों भाई घर पर नहीं थे वरना उसे बेबकूफ लापरवाह जाने क्या क्या कह कर तंग करते। वो गुमसुम बैठी थी तभी डॉ साहब उतने ही रुपये लेकर मेहंदी के पास आये जितने उसके पर्स में थे और बोले मैंने तुम्हारे पर्स से मूवी देखने जाने से पहले निकाल लिए थे क्योंकि मुझे डर था कहीं रुपये चोरी ना हो जायें, मेहंदी खुशी के मारे पापा से लिपट गयी। पापा ने मेहंदी को समझाया किस तरह रुपये पैसों का ध्यान रखना चाहिए, दुनिया मे अच्छे लोग हैं तो ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों के धन को चुरा लेते हैं।मूवी देखकर आयी मेहंदी को मूवी से तो देशभक्ति की शिक्षा मिली ही साथ ही रुपये सम्भालने की इतनी समझ मिली कि आने वाले समय मे उसके हाथ से एक चवन्नी भी नहीं खोती थी। मूवी देख जब दोनों भाई आये तो फ़िल्म के एक किरदार की तरह हाथ मे स्टील का गिलास पहन कर और भी सम्वाद बोल बोल और गानों पर अभिनय कर, चना जोर गरम करते हुए खूब धमाल मचाया।कई दिन तक इस मूवी की धूम मची रही। पता नहीं मेहंदी के रुपये वाकई चोरी हुए थे या डॉ साहब ने उसे शिक्षा देने के लिये पर्स से निकाले थे पर सच्चाई जो भी हो डॉ साहब का शिक्षा देने का अंदाज अनूठा ही था।
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