Tuesday, 18 September 2018

तीर्थयात्रा(२५)

                                  तीर्थ यात्रा
   प्रत्येक भारतीय का सपना होता है कि वह गंगोत्री यमुनोत्री बद्रीनाथ केदारनाथ इन चार धामों की यात्रा अपने जीवन काल में करे,मेहंदी के नाना जी भी तीर्थाटन के लिए अपनी पत्नी के साथ प्रस्थान को तैयार हुए।अपने व्यवसायिक कार्यों को अपने पुत्रों को सौंपकर कुछ समय अपने लिए भी निकालना उन्होंने उचित समझा प्राचीन समय में तीर्थ यात्रा करना अत्यंत कठिन होता था उस समय ना तो इतने अधिक उन्नत यातायात के साधन थे ।ना ही इतने अच्छे सड़क मार्ग और रेल मार्ग थे। इसलिए उस समय तीर्थ यात्रा करना बड़ा ही दुष्कर कार्य माना जाता था। कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि व्यक्ति तीर्थ यात्रा करने गया और पुनः लौट कर ही ना आया। हालांकि बाद में बहुत अच्छे रेल के और यातायात के साधन विकसित हो गए जिसके कारण तीर्थ यात्रा करना अत्यंत सुगम हो गया ।किंतु फिर भी सबके हृदय में एक आशंका तो रहती थी कि पता नहीं हम तीर्थ यात्रा से वापस आ पाएंगे या नहीं इसलिए जाने से पहले समस्त परिवार एकत्रित होता था,तथा एक फोटो ग्राफ खींचकर उसे यादगार के रूप में लिया जाता था।मेहंदी के नानाजी जब तीर्थ यात्रा के लिए जाने लगे उन्होंने भी अपने समस्त पुत्र-पुत्रियों के साथ एक फोटोग्राफ खिंचवाया। मेहंदी भी अपने मम्मी पापा के साथ नाना नानी के घर उनकी तीर्थ यात्रा के उपलक्ष्य में गई समस्त परिवार का एक साथ फोटो खिंचवाना अत्यंत ही आनंदित अवसर था किंतु मन ही मन में आशंका भी थी।मेहंदी तो उस समय मात्र 5 वर्ष की बालिका की थी यह सब बातें तो उसे बड़े होने पर ज्ञात हुईं। वयस्क होने पर एक दिन उसे लाला जी की डायरी मिल गयी जिसके ऊपर शीर्षक था," तीर्थ यात्रा का वर्णन" मेहंदी की तो बाँछे खिल गयीं। उसने सोचा उसकी तो घर बैठे ही तीर्थयात्रा हो जाएगी तथा लालाजी ने किस तरीके से तीर्थ यात्रा का आनंद लिया उसकी आंखों के आगे वह सारे दृश्य भी साकार हो जाएंगे। मेहंदी ने बड़े चाव से वो डायरी खोली किंतु यह क्या वह पूरी डायरी तो उर्दू में लिखी हुई थी जी हां उस काल में व्यापारी लोग मुख्य जबान के रुप में या लिखित रूप में उर्दू का ही प्रयोग करते थे हिंदी और अंग्रेजी का प्रयोग तो बहुत बाद में शुरू हुआ।मेहंदी के लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर हो गया क्योंकि उसे उर्दू पढ़नी बिल्कुल नहीं आती थी उर्दू जबान समझने में शेर शायरी तो अच्छी लगती है काफी हदतक समझ भी आ जाती है, पढ़ने में बिल्कुल भिन्न है। उस समय लोगों की मुख्य भाषा उर्दू थी अतः उसी काल में यह कहावत बनी होगी" हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फारसी क्या "इन पंक्तियों के द्वारा उस समय के साक्षर व्यक्तियों की भाषा का महत्व ज्ञात होता है।

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