Friday, 1 February 2019

मूवी का चस्का ( ३३)

मूवी का चस्का(३३)
  1. चलचित्र, मूवी,या फिल्में जिस नाम से भी पुकारा जाए रहेगा भारतीय जनमानस से जुड़ा एक अहम हिस्सा ही। कुछ चीजें जीवन से इस कदर जुड़ी होती है कि वह हमें अलग से एक उद्योग लगता ही नहीं, लगता है यह हमारे जीवन का ही एक अभिन्न अंग है जैसे पढ़ना लिखना, घूमना फिरना, रिश्तेदारों से मिलना, त्यौहार मनाना, जीवन में दिनचर्या में आरंभ से ही सम्मिलित रहता है, ऐसे ही हिंदी फिल्में देखना भी जीवन में एक कार्य की तरह ही जुड़ा रहता है ।डॉ साहब को टैक्स फ्री फिल्में देखने और दिखाने का बड़ा ही चाव था । उनका कहना था कि सरकार इन फिल्मों को टैक्स फ्री इसलिए करती है क्योंकि इसमें समाज के लिए कोई आवश्यक संदेश होता है, और उस आवश्यक संदेश को देखने के लिए हमें यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए..... मेहंदी को तो बस पापा का साथ चाहिए होता था, चाहे वह टैक्स फ्री फिल्म दिखाएं या कला फिल्म अथवा मसाला फिल्म दिखाएं , मम्मी पापा और मेहंदी तीनों जाया करते थे टैक्स फ्री फिल्में देखने स्कूटर से।
  2. छोटा भाई बहुत ही छोटा था वह घर पर रह जाता था मुरारी नाम के सेवक के पास तथा दोनों बड़े भाई डॉक्टर साहब से डील कर लेते थे कि वह मसाला फिल्म देखेंगे, टैक्स फ्री फिल्म नहीं देखेंगे, और प्रसिद्ध महानायक की फिल्म देख कर आया करेंगे ।मेहंदी तो देखकर आती थी ब्रजभूमि, दुल्हा बिकता है, पशु संग्राम आदि जैसी टैक्स फ्री फिल्में तथा दोनों भाई देख कर आते थे महानायक की खुद्दार, सत्य पे सत्ता, नसीब ,देश प्रेमी,नमक हलाल जैसी मसाला फिल्में और घर आकर सबको जलाते हुए ढिशुम ढिशुम करते, फिल्मों के प्रसिद्ध संवाद सुनाते थे। मेहंदी रुआंसी हो जाती तो डॉक्टर साहब उसके मन की बात समझ जाते और फिर वह लोग भी देख कर आते ,बॉलीवुड की हिट मसाला फिल्म।इस तरह मेहंदी दोनों फिल्म देख लेती थी मसाला फिल्म भी और टैक्स फ्री फिल्म भी।  उसके बाद तीनो भाई बहन मिलकर उस फिल्म के खूब डायलॉग बोलते ,ढिशुम ढिशुम करते हुए गाने गुनगुनाते घूमते ।
  3.    कोई रिश्तेदार आता तो उनको भी मूवी दिखाने ले जाया जाता ,उन दिनों बाहर खाना खाने का इतना रिवाज नहीं था तथा टीवी पर भी अधिक प्रोग्राम नहीं आते थे ।गर्मियों की छुट्टियां आदि में जब भी कोई रिश्तेदार आता था तो मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन बॉलीवुड फिल्म ही होती। पूरी पूरी फैमिली रिक्शा में भरकर फिल्में देखने जाती थी और फिर कई दिन तक चर्चा होती थी। खास तौर पर फिल्म के एक्शन और संवादों की धूम मची रहती थी। इसके अलावा फिल्म के गानों की भी अंताक्षरी होती और टेप रिकॉर्ड पर फिल्म के गानों की कैसेट सुनी जाती। जब तक एक फिल्म का खुमार उतरता था तब तक दूसरी फिल्म आ जाती थी और फिर वही सब उसके साथ होता था।
  4.  एक अलग ही दौर था जब छोटी-छोटी खुशियों में एक मूवी देखना भी एक बहुत बड़ी लग्जरी माना जाता था और टीवी पर आने वाली रविवारिय मूवी भी इतनी ही शिद्दत से देखी जाती चाहे कैसी भी फिल्म को टीवी पर देखने का एक अलग ही क्रेज होता था। जल्दी जल्दी से बच्चे पढ़ाई करके बैठ जाते थे शाम को मूवी देखेंगे महिलाएं भी खाने की तैयारी करके रख देती कि मूवी देखते समय बीच में उठना ना हो , तथा सभी उस फिल्म को बहुत उत्साहित होकर देखा करते थे ।
  5. उस समय टीवी भी बहुत ही कम घरो में होते थे तथा खिड़की पर आसपास के बच्चों का जमघट लग जाता था जो फिल्म देखते समय खूब हल्ला गुल्ला करते थे। सुनने देखने में व्यवधान तो होता था पर उनके उत्साह को देखकर अच्छा भी लगता था, ऐसा ही दौर था वह जब सब लोगों की खुशी में अपनी भी खुशी दिखती थी। और कम साधनों में भी अधिक से अधिक आनंद आता था । 
  6. एक बार दूरदर्शन पर फिल्म आ गई, चला मुरारी हीरो बनने और हमने अपने सेवक मुरारी को खूब छेड़ा कि तू तो हीरो बनने जा रहा है हीरो बनने.... और वह भी खूब ही खुश हुआ, इतना खुश हुआ जैसे कि वाकई में उसी के ऊपर वह फिल्म बनी हो ।बस यही पल होते थे छोटे-छोटे, आनंद खोजने के, कम साधन में भी और अन्य को खुश करके खुशी मनाना मूल मंत्र था उन दिनों जीवन का।