" तुम्हारी दृष्टि "
कहते हो समय की एक सीमा निर्धारित होती है
सम्भवतः सभी की एक सीमा निश्चित होती है
ये बात तुम अपनी दृष्टि को क्यों नहीं समझाते हो
जो कि प्रत्येक बन्धन से मुक्त हो झाँक लेती है सब
बांचती है पत्तों,भोजपत्रों,पाषाण व पुष्पों की भाषा
धरा,निर्झर,पादप,जीव-जंतु तथा बह्मांड की भाषा
लिखे हुये पृष्ठों के मध्य की श्वेत रिक्तियों की भाषा
नेत्र,मुख,भाव भंगिमा,देह व मौन की समस्त भाषा
कही अनकही एवं सुनी अनसुनी जान लेते हर भाषा
मेरी अस्थिरता, उत्कंठा व चंचलता को परखने वाले
दिव्य चक्षु कहाँ से प्राप्त कर लिये हैं तुमने प्रियवर
गहरे तक वेधकर देखने वाली अँखियों को एकदिन
तंग आकर ढक दिया मैंने रेशमी आवरण बांध कर
स्मरण हो आयी अल्पव्यस्कता में खेले जाने वाली
आँख मिचौली,अब कैसे पहचानोगे मुझे भीतर तक
तुम्हारी आँखों से ओझल हो कर मुदित हुई ही थी !
परन्तु ये क्या,पढ़ लिया लिया तुमने मुझे पुनः संपूर्ण
टटोल टटोल कर ठीक किसी ब्रेललिपि की ही भाँति....
मीनाक्षी मेहंदी
कहते हो समय की एक सीमा निर्धारित होती है
सम्भवतः सभी की एक सीमा निश्चित होती है
ये बात तुम अपनी दृष्टि को क्यों नहीं समझाते हो
जो कि प्रत्येक बन्धन से मुक्त हो झाँक लेती है सब
बांचती है पत्तों,भोजपत्रों,पाषाण व पुष्पों की भाषा
धरा,निर्झर,पादप,जीव-जंतु तथा बह्मांड की भाषा
लिखे हुये पृष्ठों के मध्य की श्वेत रिक्तियों की भाषा
नेत्र,मुख,भाव भंगिमा,देह व मौन की समस्त भाषा
कही अनकही एवं सुनी अनसुनी जान लेते हर भाषा
मेरी अस्थिरता, उत्कंठा व चंचलता को परखने वाले
दिव्य चक्षु कहाँ से प्राप्त कर लिये हैं तुमने प्रियवर
गहरे तक वेधकर देखने वाली अँखियों को एकदिन
तंग आकर ढक दिया मैंने रेशमी आवरण बांध कर
स्मरण हो आयी अल्पव्यस्कता में खेले जाने वाली
आँख मिचौली,अब कैसे पहचानोगे मुझे भीतर तक
तुम्हारी आँखों से ओझल हो कर मुदित हुई ही थी !
परन्तु ये क्या,पढ़ लिया लिया तुमने मुझे पुनः संपूर्ण
टटोल टटोल कर ठीक किसी ब्रेललिपि की ही भाँति....
मीनाक्षी मेहंदी